।।द्विज नृप होई हमै ही हानि।।


  ::विश्व के विभिन्न देशों में कई महान क्रांतियां हुई है जिसने उस देश में प्रचलित शासन के वर्गीय चरित्र में भारी बदलाव कर शासन में सार्वजनिन व्यवस्था की शुरुआत की। उदाहरणार्थ :-1750 -1870 के बीच हुई औद्योगिक क्रांति से औद्योगिक पूँजी युग की शुरुआत हुई। अमेरिका में हुए 1776 में स्वतंत्रता युद्ध ने अमेरिका को स्वतंत्र राष्ट्र की मान्यता प्रदान की। 5मई 1789 में शुरू हुई महान फ्रांस क्रांति देश की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की कायाकल्प परिणति पर ही समाप्त हुई । 1917 की रूसी क्रांति ने 10 वर्षों 1917-1927 के बीच ही रूस से संपूर्ण निरक्षरता का समूल उन्मूलन कर दिया। 1949 में हुई नई जनवादीक्रांति ने चीन में शिक्षा को जनता का मूल अधिकार बना दिया । हमारे देश में भी हरित क्रांति, औद्योगिक क्रांति और संचार क्रांति के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों में विकास कर कई क्षेत्रों में महान उपलब्धियां हासिल की है, परंतु सदियों से सामाजिक तिरस्कारों,अपमानों व अधिकारों की प्रवंचनाओं, प्रगति पथ में अनाधिकृत प्रक्षेपित विषाद की कुंठाओं, शिक्षा की वर्जनाओं व धार्मिक वितंडावादों का शिकार दलित समाज इस देश में आजादी के पुर्व से ही बहुजन समाज अपने अस्तित्व और अस्मिता की तलाश में कीड़े मकोड़े की तरह रेंग-रेंग कर चलने के लिए अभिशप्त था और आज भी हालात जस के तस हैं ।

         यह अपनी प्रबल इच्छा के साथ अभिषिक्ति के लिए प्रयासरत भी था । आजादी के उपरांत इस वर्ग का अधिकतम समाज बड़ी ही मुश्किल से साइकिल से परिचित हो पाया है और साइकिल को अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मान उसके गौरव गाथाओं में ही विभोर है । जबकि दूसरी तरफ अभिजात वर्ग जिन्होंने अपनी बैलगाड़ी से चलने की संस्कृत को विकसित कर हवाई यात्रा  की संस्कृति से भी परिचय कर लिया है,तथा सुई के उत्पादन से भी महरूम वे लोग आज जहाज, कंप्यूटर,इंटरनेट के प्रवर्तक की हैसियत प्राप्त कर ली है।  

    ::1947 में हुए देश के विभाजन के समय जो द्विज  पाकिस्तान से भारत आए वह खाली हाथ थे । वह रहने के लिए मकान, खाने के लिए रोटी और पहनने के लिए कपड़ों को भी मोहताज थे। यहां आकर डेरों में रहे और आज उँची-उँची अट्टालिकाओं लंबी-लंबी गाड़ियों व अपार चल एवं अचल संपत्ति के स्वामी बन गए हैं। उनकी इस प्रगति का कारण स्पष्ट है कि सरकार चलाने वाले द्विजों ने उनके पुनर्वास हेतु अलग से पुनर्वास मंत्रालय खोल दिया था । पुनर्वास के नाम पर पाकिस्तान से आए शरणार्थियों पर दोनों हाथों से राष्ट्र की संपत्ति लुटाई गई। 1983 में पंजाब से आए 5000 शरणार्थियों को बसाने के लिए सरकार ने ₹5.30 करोड़ मुहैया कराया ।


        यह विडंबना ही है कि जहां एक तरफ इस देश के 110 करोड़ मूलनिवासियों ने अपने उत्थान के लिए हड्डी गलाकर और खून जलाकर इतना कठिन परिश्रम किया है कि उनका शरीर हांड़ मांस के चलते-फिरते नर कंकाल का रूप धारण कर चुका है, फिर भी वे अपने लिए पतन  से उत्थान का मार्ग अभी तक तलाश नही पाये हैं । ऐसा भी नहीं है कि इन्होंने अपने समग्र विकास के लक्ष्य को अल्पावधि में ही प्राप्त करने की व्यग्रता प्रदर्शित की हो। जिसका हतोत्साहित परिणाम है उनके शारीरिक संरचना की वर्णित वर्तमान रूपरेखा । सामाजिक,आर्थिक और सांस्कृतिक उत्थान में समानता के लिए दलितों ने लंबे समय तक अनवरत संघर्ष किया है । सदियां गवाह है कि इन्होंने सामाजिक एकरूपता की लक्ष्य प्राप्ति के प्रयासों में कहीं से भी किसी तरह की भी कमी नहीं छोड़ी है, जिस कमी का दोषारोपण इनके कंधों पर हो । हां यह सच है कि परिवर्तन के लिए उपयोग किए जाने वाले संसाधन उपलब्ध तो थे परंतु मात्रा पर्याप्त या अभीष्ट नहीं थी । प्रचलित हिंदू संस्कृति के मतानुसार छल-छद्म के अभाव में कोई भी संसाधन अभीष्ट हो ही नहीं सकता था। हमारे महान विभूतियों ने अपने जीवन के संघर्ष को लक्ष्य तक न पहुंचा पाने की हताशा अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर देखी थी। जब वह अपनी प्यासी निगाहों से आने वाली संतानों के कंधों को अपने संघर्ष के संवाहक के रूप में उपयोग करने की महत्वाकांक्षा लिए अग्रसर होते तो उनको अपने स्वप्निल भविष्य का स्वरूप भी अंधेरे पाक्षिक सा ही प्रतीत होता । जैसे ही वह लक्ष्य प्राप्ति में आई रुकावटों का स्मरण करते वैसे उनके मस्तिष्क पटल पर चिंता की गंभीर रेखाएं खिच जाती तथा उनके मस्तिष्क की खींची रेखाएं उन्हें इस बात के लिए उद्वेलित करती कि अपनी संतानों को यह सीख दें कि छल-छद्म का मुकाबला छल,छद्म के आश्रय से ही संभव है, परंतु यह सोचते ही एक ठंडी सी सिंहरन उनके मस्तिष्क को स्तब्ध कर जाती कि यदि हम भी अपनी संतानों को यही सीख दे तो फिर उन्हीं की तरह अपनी संतानों में भी लक्ष्य की सफलता की व्यग्रता इन्हें भी नैतिक पतन के अधोगति तक पहुंचा देगी । 

    विश्व के तमाम देशों ने अपने देश में एक क्रांति के माध्यम से सत्ता के वर्गीय चरित्र को उखाड़ फेंका, परन्तु यहां अभी तक संभव नही हो पाया है । यहां हो रही बार-बार की क्रांतियों से इतना लाभ हर बार अवश्य होता है कि सत्ता के वर्णीय चरित्र के प्रतिपालकों को अपना सिंहासन हिलता महसूस होता है। बार-बार असफलता की हताशा में द्विजों पर दोषारोपण कर खाना पूरी करने की विधा भी कोई कारगर उपाय नहीं है। हमें सत्ता के वर्णीय चरित्र को समाप्त कर निष्पक्ष व सार्वजनिन सरकार गठन की स्थापना में कुछ ठोस, नीति-पूर्ण एवं व्यवहारिक कदम उठाने की प्रबल आवश्यकता है। अन्यथा हम घर से बेदखल कर दिए गए एक कमजोर स्वामी की भांति चौराहे पर खड़े होकर आततायियों के विरुद्ध कुछ अपशब्दों का प्रयोग कर ही अपने को संतुष्ट करने की कोशिश करेंगे । 

    सामाजिक क्रांति की दिशा में हमने जो कुछ सीखा है वह सामाजिक क्रांति के महान अग्रदूत महात्मा ज्योतिबा फूले से सीखा है । सजग व सामाजिक परिवर्तन के हामी बहुजन समाज/ मूलनिवासियों के महात्मा ज्योतिबा फूले हृदय सम्राट हैं । उनके संघर्षों के प्रति बहुजन का समर्पण सामाजिक परिवर्तन की दिशा में आज भी एक नवीन लीक की तरह अडिग और प्रासंगिक है । इस मार्ग पर अग्रसर हो कर समता,स्वतंत्रता, बंधुत्व व शांति पर आधारित मजबूत राष्ट्र की ऊंची-ऊंची आलीशान अट्टालिकाओं का निर्माण किया जा सकता है। 

              24 सितंबर 1873 को ज्योतिबा फूले ने अपने समर्थकों एवं प्रसंशकों का एक सम्मेलन आहूत कर यह निर्णय लिया कि हमें शूद्रों को ब्राह्मणों के शोषण से मुक्त कराने के लिए एक मजबूत संगठन की आवश्यकता है । विचारोंपरान्त तय हुआ कि उस संगठन का नाम "सत्यशोधक समाज" होगा, जो सभी मनुष्य को ईश्वर की संतान मानकर प्रत्येक से समानता का व्यवहार करेगी तथा प्रतिपालक की आराधना के लिए किसी मध्यस्थ की सहायता नहीं लेगी । ज्योतिबा फुले ने वेदों को पवित्र मानने से इनकार कर दिया था, साथ ही साथ उन्होंने चार्तुवर्ण्य की भर्त्सना करते हुए मूर्ति पूजा का विरोध भी किया । उनके अनुसार सभी मनुष्यों से समानता का व्यवहार किया जाए तथा लिंग पर आधारित भेदभाव समाप्त होना चाहिए। उन्हें यह आशंका थी कि धार्मिक हठधर्मिता व उग्र राष्ट्रवाद की भावना इंसानों की एकता छिन्न-भिन्न कर देगी । महात्मा ज्योतिबा फुले ने एक बार ब्रह्म समाज व प्रार्थना समाज के नेताओं पर आरोप मढ़ते हुए कहा था कि सामाजिक सभा और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस हमारी वास्तविक प्रतिनिधि नहीं है, क्योंकि यह संगठन ब्राह्मण प्रधानता का संगठन है जिसने बहुसंख्यक समाज की स्थिति में विकास के लिए नाम मात्र का कार्य दिखावे के लिए किया है। हमें इनकी सहायता की आवश्यकता नहीं और न ही इन्हें हमारे बारे में चिंतित होना चाहिए । उन्होंने अपनी पुस्तक "सत्य धर्म पुस्तक"

 (मरणोपरांत प्रकाशित) में दावा किया था कि किसान और अछूत न तो सार्वजनिक सभा और न ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य हैं । इन संगठनों द्वारा भारतीय प्रशासनिक सेवा का भारतीयकरण किए जाने की प्रबल मांग एक खतरनाक चाल है। यदि इन्हें मान लिया जाए तो भारतीय प्रशासनिक सेवा का ब्राह्मणीकरण हो जाएगा। परिणामतः राष्ट्रीय भावना के जागरण का कार्यक्रम बाधित होगा। प्रशासन का ब्राह्मणीकरण होना अंतरजातीय भोज व विवाह की सोच जो कि शूद्रों में तेजी से प्रचलित हो रही है प्रतिबंधित कर दी जाएगी।


       महात्मा ज्योतिबा फूले गुलामी से घृणा करते थे चाहे वह जिस भी रूप में हो। शारीरिक गुलामी बहुत बुरी चीज है, परंतु आत्मा और मस्तिष्क की गुलामी जो भारत के मूल निवासियों शूद्रों, अतिशूद्रों के ऊपर सदियों से प्रक्षेपित की गई है वह हिंदूवाद की निष्पक्षता एवं सार्थकता पर काला धब्बा है । उन्होंने हिंदुओं के अत्याचारी कदम की उपहासपूर्ण तरीके से भर्त्सना की। उनकी मान्यता थी कि हमारे देशवासी अमेरिका के नीग्रो दासता से मुक्ति के श्रेष्ठ मार्ग के  उदाहरण से दीक्षित होकर शूद्रों अतिशूद्रों को ब्राह्मणों द्वारा लादी दासता की बेड़ी से मुक्ति दिलाएंगे ।


     भारतीय संविधान निर्माता डॉ अंबेडकर ने महात्मा ज्योतिबा फूले को अपना पथ प्रदर्शक स्वीकार किया था। फुले की दीक्षा को आधार मानते हुए डॉक्टर अंबेडकर ने अपने मुक्ति आंदोलन की शुरुआत की। डाॅ अंबेडकर ने भी अपने व्याख्यान में मूल निवासियों को सावधान किया था कि तुम्हारे दु:खों के निवारण हेतु न तो कोई ईश्वर अवतरित नहीं होगा और न ही कोई बड़ा नेता पैदा होगा। तुम्हें ही अपने बीच से अपना नेता पैदा करना होगा वही तुम्हें दासता से मुक्ति दिला सकेगा। उन्होंने कहा कि हम ने एक ऐसे स्वांगी महात्मा को भी देखा है जिन्हें अपने महात्मा होने के दर्प के साथ-साथ अछूतों के अछूतपन मिटाने की कुटिल महत्वाकांक्षा थी। उनसे भी हमने कहा था कि आप जैसे तमाम महात्मा आए और चले गए, लेकिन अछूतपन अपनी स्थिति में आज भी विराजमान है । 

     आजादी के बाद देश के द्विजों ने अपने सगे संबंधियों के पुनर्वास के लिए जहां एक ओर पुनर्वास मंत्रालय व करोड़ों का फंड उनके लिए आवंटित किया वही इस देश का 40 करोड़ मूलनिवासी देश के बड़े-बड़े शहरों में अपनी रोजी-रोटी व अपने पुनर्वास के लिए भटक रहा है। जिन्हे ग्रामीण सामंतों के जुल्मों ने बेघर कर दिया है । आज भी गांव में बेगारी से इंकार करने पर बेसहारा लोगों को सामंतों के कोप का भाजन होते देखा जा सकता है । इन अत्याचारों को देखने से बड़ी ही ह्रदय विदारक स्थित उत्पन्न होती है। मजबूरन निरीह गांववासी अपनी आजीविका की तलाश में शहरों में पलायन करते हैं । मुसीबतें वहां भी उनका साथ नहीं छोड़ती । सर ढकने के लिए यही पलायनवादी जब बड़े शहरों की बजबजाती नालियों "जहां से लोगों का निकलना भी दूभर हो" के किनारे झोपड़ी लगाकर रहने लगते हैं तो कुछ ही दिनों बाद वहां की सरकार अतिक्रमण हटाने के नाम पर पुनः उन गरीब मजदूरों को बेरहमी के साथ उजाड़ देती है । उजड़ते गरीब असहाय मजदूरों की चीत्कार भद्र समाज का मनोरंजन करती है और वह बेसहारों की स्थिति पर खिलखिला कर हंसते हैं । यह स्थिति सिर्फ एक शहर दिल्ली की नहीं है बल्कि यही स्थित मुंबई, लखनऊ, पटना, भोपाल, जयपुर, चंडीगढ़, बैंगलोर यहां तक कि पश्चिम बंगाल के कोलकाता शहर की भी है, जहां साम्यवादी सरकार दो दशक से अधिक से शासन कर रही थी । वहां भी द्विज शासन ही मूल निवासियों की असह्य 

स्थित का कारण है।


 ऐसा क्यों होता है कि सरकार का द्विज मुखिया 40 करोड़ बहुजन समाज के पुनर्वास की कोई योजना नहीं बनाता? यदि योजनाएं बनाई जाय तो कई बार क्रियान्वित नहीं होती ,बल्कि योजनाओं को निर्गत फंड पुनः उसी संस्था को वापस हो जाती है, जहां से आवंटित की जाती है । इस देश में चाहे नेहरू खानदान की हुकूमत रही हो या फिर मोरारजी देसाई, वीपी सिंह, नरसिंह राव , अटल बिहारी बाजपेई ,मनमोहन सिंह या वर्तमान चौकीदार नरेन्द्र मोदी की हो, किसी ने भी अभावग्रस्त व पददलित विस्थापितों के पुनर्वास संबंधी संसद में एक भी गंभीर चर्चा नहीं कराई जिससे देशवासियों को यह अहसास होता कि हमारी सरकार पाकिस्तान, पंजाब व कश्मीर के विस्थापित पंडितों के पुनर्वास के लिए ही चिंतित नहीं रहती,अपितु सामंतों के दमन चक्र से हुए दलित विस्थापितों के पुनर्वास के लिए भी उतनी ही गंभीर है जितनी कि अन्य विस्थापितों के लिए । यदि समस्त शासकों की चर्चा छोड़कर केवल वीपी सिंह की चर्चा की जाय, जिनके व्यक्तित्व, कृतित्व कर्तव्य परायणता व सहिष्णुता की तुलना अबोध लोग आत्मश्लाघा के  दिवास्वप्न में तथागत गौतम बुद्ध से करने लगे थे । कई लोग सीमा पार कर यह टिपण्णी करते हुए अतिरेक की झड़ियां लगा देते हैं कि राजा साहब में तथागत बुद्ध के अंश का समावेश था । याद रहे कि जब वीपी सिंह उत्तर प्रदेश के वजीर-ए- आला थे उस समय ज्यादातर दलितों की सामूहिक हत्याएं हुई थी । आज भी  दलित उत्थान की दिशा में उठाए गए उनके कदम की लोग भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं । उनकी कमीज़ को सबसे उजली होने का प्रमाण देते है, परंतु भारत के महालेखाकार की यह आख्या कि "श्री सिंह के मुख्यमंत्री काल में अनुसूचित जातियों के उत्थान के लिए आवंटित फंड को इनकी सरकार द्वारा बमुश्किल 10% खर्च कर अवशेष केंद्र  सरकार को वापस कर दी गई" उनकी कमीज पर कीचड़ उछालने की बजाय उन्हें भी कीचड़ के दलदल में घसीट लेती है। 

     देशहित में सत्ता के वर्णीय चरित्र का समूल नाश होना समय की प्रासंगिकता ही नहीं अपितु 40 करोड़ विस्थापितों के साथ 70 करोड़ मूलनिवासियों की आजादी का जश्न भी होगा। इस देश में लोकतंत्र की मर्यादा तभी कायम होगी जब बहुसंख्यक समाज देश का हुक्मरान होगा। हमारे देश में लोकतंत्र ने अपनी स्थापना का अर्धशतक बहुत पहले ही पार कर लिया है परंतु इस देश में शासन के वर्णीय चरित्र के चलते यह कभी महसूस नहीं होने पाया कि देश की शासन प्रणाली का आधार लोकतंत्रात्मक है या अल्प तंत्रात्मक ? जब तक अल्प जनाधार वाले लोग सत्तासीन होते रहेंगे तब तक अधिसंख्य जनाधार वाले लोग समाज को आपस में लड़वाते रहेंगे अन्यथा उनकी कुर्सियों के हत्थे उखड़ जाएंगे ।  यदि आप सभी मूल निवासियों की समस्याओं का समाधान चाहते हैं तो द्विजों को नृप होने से रोकना होगा । मूलनिवासी शूद्र व अतिशूद्र द्विजों के शासन आने के समय से ही मुश्किलों का सामना करते हुए कष्टमय जीवन ढो रहे हैं । अब समय आ गया है कि वह अपने जीवन को घसीटने की बरअक्स जीने के कार्य मे संलग्न करें । इसलिए उन्हें द्विजों के अत्याचार से मुक्ति का मार्ग महात्मा ज्योतिबा फुले द्वारा निर्देशित डाॅ अंबेडकर द्वारा निर्मित व प्रदर्शित  लीक गमन से व अत्त दीपो भव के  सूत्र से तलाशने चाहिए।

गौतम राणे सागर, 

राष्ट्रीय संयोजक,

 संविधान संरक्षण मंच।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ