शुद्र हत्या के अपराध का अमिट कलंक


 प्राचीन काल से ही अयोध्या के राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र की कल्पना हिंदू जनमानस में एक आदर्श पुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में की गई है । उन्हे एक सत्यनिष्ठ, न्यायप्रिय,दयालु पितृ भक्त, बंधु प्रेमी, आदर्श पति, वीर शिरोमणि एवं शरणागत वत्सल के रूप में प्रसिद्ध किया गया है। उनके प्रति कुछ लोगों की इतनी ऊंची धारणा है कि उन्हें ईश्वर का अवतार मान लिया है । 

        ऐसा लगता है कि कुछ लोगों ने राम के सामने पूर्ण आत्मसमर्पण कर दिया है। हां समर्पण के बिना भक्ति हो भी कैसे सकती हैं । जब तक श्रद्धा अंधश्रद्धा और कृतज्ञता अंधकृतज्ञता का रूप न ले ले भक्ति का कोई आनंद ही नहीं । अंधश्रद्धा और अन्ध कृतज्ञता के आगे विवेक व तर्क की कोई आवश्यकता भी नहीं होती। इसी दिशा में दिनांक 19 जून 2000 के अमर उजाला में प्रकाशित *नहीं श्रीराम शूद्र हत्या के अपराधी नहीं थे* शीर्षक से श्री भानु प्रताप शुक्ला का एक लेख पढ़ने को मिला । अंध-भक्ति, अंध-श्रद्धा,अंध-कृतज्ञता व अति-उत्साह में लिखा गया यह लेख सच्चाई से भटकाने के उद्देश्य का एक असफल प्रयास है । अन्यथा कोई भी विवेकशील, संवेदनशील, प्रज्ञाशील व विकासशील चिंतक पीछे हाथ बांधे किसी भी दशा में किसी के भी सामने समर्पण नहीं करता है । 

      21 बार क्षत्रियों से धरती विहीन करने को दृढ़ परशुराम की धरोहर भानु प्रताप शुक्ला का श्रीराम के आगे आत्मसमर्पण करना सहज गुण नही है । वैसे शुक्ला श्रीराम के समक्ष समर्पण करने वाली टीम के अगुआ तुलसीदास से भी दो कदम आगे बढ़ गए । तुलसीदास ने अंध-भक्ति की सीमा राम की जूठन खाने के अवसर की तलाश तक तथा मर्यादा पुरुषोत्तम के सम्मान तक निर्धारित की, परंतु श्री शुक्ला की दीवानगी का अंदाजा उनके उदाहरण *श्रीराम पर कोई भी आरोप लगाने के पहले ध्यान में रखना चाहिए कि श्री राम ही भारत और भारत ही श्रीराम है* से लगता है कि वह अति उत्साह में यह भी भूल गए कि राम की मान्यता विष्णु अवतारों की श्रृंखला की एक कड़ी मात्र भर है।


   "रामचरितमानस" में राम का जो चरित्र चित्रण किया गया है वह निहायत गंदा, बेहूदा और शर्मनाक है। तुलसी ने राम का चित्रण वस्तुतः मिथ्यावादी, अन्यायी, प्रपंची, नासमझ, खुशामद पसंद, जातिवादी, दास प्रथा के समर्थक, गुंडों को हर प्रकार का संरक्षण देने वाले, मनमौजी एवं निकृष्ट कोटि के एक सामंत के रूप में किया है। जिनके सामने उनके सगे भाई भी हाथ जोड़कर खड़े रहने वाले दास मात्र थे। जिनकी स्पष्ट घोषणा थी मेरे सामने जो  ऐठ कर चलेगा, सिर उठाकर चलेगा उसका सिर काट लूंगा। लेकिन जो सर झुकाए रखेगा, झुककर चलेगा उसे हर तरह का संरक्षण दूंगा। उसका बाल भी बांका नहीं होने दूंगा । इन्हीं के शब्दों में:-       *तुलसीदास परिहरि प्रपंच सब, नाउ रामपद कमल नाथ*,

    *जनि डरपहु तोंसे अनेक खल अपनाए जानकीनाथ*।

                                         ( विनय पत्रिका )

     रामचरितमानस में राम के मुख से ही तुलसीदास ने गुंडों को अभयदान दिलवा दिया है ।

     *कोटि विप्रबध लागै जाहू,आए सरन तजौं नही ताहू*,

      *सन्मुख होई जीव मोहि जबहीं,जनम कोटि अद्य नासहि तबही* ।

    एक करोड़ ब्राह्मणों की हत्या करके भी अगर कोई मेरी शरण में आ जाए अर्थात मेरी अधीनता कुबूल कर ले, मेरे तलवे सहलाने लगे तो मैं ऐसे महान पापात्मा को भी नहीं त्यागूंगा । उसे भी अपना बना लूंगा। मेरे सामने जैसे ही कोई आता है उसके करोड़ों जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं।     यह आश्वासन भी तुलसी को नाकाफी लगा इसलिए उन्होंने राम के मुंह से और भी उदारता पूर्व घोषणा करवा दी कि सिर्फ करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या का अपराधी ही क्यों सारे संसार का जड़ ,चेतन, चर और अचर सबसे दुश्मनी करने वाला, सभी की बुराई करने वाला आदि माया, मोह, छल-कपट और अभिमान छोड़ कर मेरी शरण आता है तो मैं उसे भी अपने ही बराबर का दर्जा दूंगा । यथा:-

  *जो नर होई चराचर द्रोही आबै सरन समय तक मोही*,         

  *तजि मद मोह कपट छल नाना, करौं सघ तोहि आप समाना*। (रामचरितमानस )

     विश्व द्रोह जैसे अपराध का भी जो अपराधी है वह भी अगर प्रभु की शरण में चला जाता है तो उसे भी राम दुत्कारते नहीं वरन अपना बना लेते हैं ।  किसी पैरवी की आवश्यकता भी नहीं सिर्फ *पाहि कृपा निधि* कहकर पैरों पर गिर जाने की जरूरत है। राम के दरबार के लिए प्रणाम कि कामतरू है । आखिर राम प्रनतारति भंजन है न ।

  *प्रनतपाल रघुनायक, करना सिंधु खरारि*,

  *गए सरन प्रभु राखि है सब अपराध बिसारि*।

    रघुनाथ के सामने सिर झुकाए हुए जो उनकी अधीनता स्वीकार कर लेता है वह कैसा भी घोर अपराधी ही क्यों न हो उसका सब अपराध भूल कर वह उसे अपना लेते हैं। पालन-पोषण करते हैं, बस हम तुम्हारे हैं इतना कह कर पैरों मे गिर जाने की जरूरत है। अगर तुमने राम की अधीनता स्वीकार कर ली तो किसका साहस जो तुम्हारा बाल भी बांका कर सके। 

  *जा पै कृपा रघुपति कृपाल की, बैर और को काह सरै*, *होई न बांका बार भगत को, जो कोउ कोटि उपाय करौ*।       (विनय पत्रिका)

  राम की खुशामद पसंदी का तो कहना ही क्या सिर्फ एक बार नाम भर ले लो बस तुम्हें वह पद और स्थान मिल जाएगा जिसके लिए बड़े-बड़े भी तरसते रहते हैं। कोई बात नहीं कि तुम कितने बड़े पापी, कुटिल, दुष्ट,पतित दुखित भयभीत अथवा जाति बहिष्कृत हो। सिर्फ एक बार राम का नाम ले लो चाहे वह अपनी इच्छा से नहीं भले ही मजबूरी से लिया गया हो ।

 *भारत अधम कुजाति कुटिल खल,पतित समीत कहूं जो समाहि न*,

  *सुमिरत नाम बिनास हूं बारक पावत सो पद जहां सुर जाहि न*,।  (विनय पत्रिका)

 तुलसी ने राम के सारे दुर्गुणों का गुणगान करके धर्म भीरू हिंदू समाज की आंखों में धूल झोंकने की जो घिनौनी कोशिश की है उसकी मिसाल अन्यत्र दुर्लभ है। गंभीरता पूर्वक अध्ययन से पता चलता है कि तुलसी के राम में कोई भी विलक्षणता नहीं है जिसके कारण उन्हें परमेश्वर माना जाए ! इसके विपरीत उनके चरित्र में वह सारे दोष है जो किसी भी व्यक्ति को निम्न कोटि का बनाते हैं।


  इस प्रसंग की विवेचना करें कि शंबूक हत्या के अपराधी राम थे या नहीं? यदि थे तो शंबूक का अपराध क्या था वेद शास्त्रों का अध्ययन, समाज मे सनक से घोषित सड़े हुए अंग की सेवा सुश्रुषा? पशुओं से भी अधिक पतित बनाए गए शूद्रों के उत्थान की चेष्टा या राम के समक्ष हाथ बांधे शरणागत न होना ? निष्कर्ष के लिए हत्या से पुर्व राम और शंबूक के संवाद के  कुछ अंश उद्धृत करना प्रासंगिक है । 

       शंबूक का वध राम ने छल, कपट,पाखंड व झूठी मर्यादा कायम रखने  के उद्देश्य किया। घटना की सिलसिलेवार विवेचना करते हैं अयोध्या में अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया गया था भोर से ही राज प्रासाद वेद मंत्रों की मधुर धुन से गूंज रहा था । यज्ञशाला में ऋषि-मुनियों और सगे संबंधियों से घिरे राम का मुख कुंदन की कांति लिए चढ़ते हुए सूर्य के समान देदीप्पमान था । यज्ञ के बाद मंगलाचरण और पुष्प वर्षा के मध्य चंदन तिलक लगाया गया। माता कौशल्या के प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं थी। उन्होंने गदगद कंठ से राम को आशीर्वाद दिया पुत्र तुम्हारा अश्वमेध यज्ञ सफल हो तुम युग युग जियो । राम ने माता के चरणों को छूकर राज प्रासाद के सम्मुख एकत्रित प्रजा के सामने अश्वमेध यज्ञ की घोषणा के लिए चल पड़े।

   एकाएक गगनभेदी कातर ध्वनि से सारा राज प्रासाद कांप उठा। राम के बढ़ते हुए पांव अचानक रुक गए । राम ने कड़क कर द्वारपाल से पूछा इस शुभ अवसर पर यह करुण क्रंदन कैसा ? महाराज एक ब्राह्मण अपने पुत्र के मृत शरीर को उठाए अपरिमित शोक से त्रस्त है । छाती पीट-पीटकर विलाप कर रहा है। उसके पुत्र की अल्पायु में मृत्यु हो गई और वह आपको........

तुम रुक क्यों गए द्वारपाल? महाराज व व्यथित होकर अनर्गल बकवास कर रहा है ।वह अपने पुत्र की हत्या का दोष आप पर मढ़ रहा है तथा आपको हत्यारा घोषित कर रहा है महाराज। उपस्थित जन स्तब्ध थे। राम का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। अपने चारों ओर देखा । इसके पहले उनका मुंह खुलता ब्राह्मण अपने पुत्र के मृत शरीर को छाती से लगाए सैनिकों के विशाल भुजाओं में जकड़ा हुआ राम के सामने उपस्थित हो गया। उसकी आंखें स्थिर और क्रोध के कारण मुंह फेन से भरा था । उसने एक बार राम को सिर से पांव तक देखा और पुत्र के पार्थिव शरीर को धरती पर रख कर चिल्ला उठा "राम तुम मेरे पुत्र के हत्यारे हो"।

  "पिता के जीवित रहते आज तक कभी भी पुत्र की मृत्यु नहीं हुई । तुम्हारे राज में पाप और अधर्म वर्षा ऋतु में धान के खेत के समान पनप रहे हैं। मैं ईश्वर को साक्षी मानकर कहता हूं कि मैंने मन, वचन, कर्म से तथा  चेतन व अचेतन अवस्था में भी कभी कोई ऐसा कार्य नहीं किया जिसका दंड पुत्र शोक हो! ऐसी अनहोनी घटनाएं अधर्मी, पापी और सर्वथा अयोग्य राजा के राज में होती है। इसे मृत्यु नहीं हत्या कहते है ।इसके कारण तुम....... ब्राह्मण का कंठ रूंध गया। क्षण भर के लिए उसने स्तंभ का सहारा लिया और फिर वह द्रुत गति से मृत शरीर को उठाकर राज प्रासाद से भाग गया। राम की आंखों के सामने अंधेरा छा गया। उनकी दशा ऐसे वृक्ष के समान थी जो भयंकर तूफान में स्थिरता के लिए प्रयत्नशील हो परंतु वेग के कारण संभल न पा रहा हो ।

    महामुनि नारद ने आगे बढ़ निस्तब्धता भंग करते हुए गंभीरता से कहा:- "राम धर्म शास्त्रों के अध्ययन तप और जप से मोक्ष लाभ पाने का अधिकार केवल ब्राह्मण को है । सतयुग में ऐसी अनहोनी घटना कभी नही घटी थी । तुम्हारे राज में निश्चय कोई पातकी शूद्र अपने दास धर्म को त्याग मोक्ष सिद्धि के लिए तपस्या कर रहा है।


 : राम ने सुना क्षण भर पहले का मानसिक झंझावात लुप्त हो गया । इस बार कृतज्ञता से महामुनि नारद की ओर देखकर शस्त्रों से सुसज्जित सेनापति की ओर देखते हुए उच्च स्वर में कहा सेनापति चतुरंगणी सेना तैयार करो! मुझे सारी प्रजा मर्यादा पुरुषोत्तम कह कर पुकारती है ।मुझे पाप और अधर्म का नाश करना है । सैनिकों से कह दो कि सूर्योदय से पहले ही हम अयोध्या से प्रस्थान कर देंगे । ध्वजा से सुशोभित स्वर्ण रथ पर बैठे राम दूर तक फैले हुए हरे भरे पहाड़ों की शोभा निहारते रहे तथा आंतरिक आनंद के सुख से गगनचुंबी ध्वल चोटी की ओर देखते हुए कहा:- सेनापति ऐसा लगता है कि हम महामुनि नारद के बताए हुए प्रदेश में आ पहुंचे हैं।

       सेना पति ने अपने चारों ओर देखा मानो वह समस्त दृश्यों को पलकों में छुपा लेना चाहता हो। उसने धीरे-धीरे पलकें खोली और कहा महाराज इन पर्वतों की सुंदरता और शांत की आभा स्वर्ग के समान है यहां तो दैत्यों का मन भी तपस्या करने को लालायित हो उठेगा। निश्चय ही महामुनि नारद को भ्रम हुआ है। कुछ लम्हों तक सब चुप चाप रहे। वहां घोड़ों के पदचाप और रथ के पहियों की गड़गड़ाहट के अलावा और कोई धुन सुनाई नहीं दे रही थी । राम ने हरे-भरे पहाड़ों की गोद में फैले हुए झोपड़ों की तरफ इशारा करते हुए कहा राजगुरु वहां दूर सुंदर लताओं और पुष्पों से आह्लादित झोपड़ियों का झुंड कैसा है? "कोई ऋषि आश्रम होगा महाराज गुरु वशिष्ट ने उत्तर दिया । कैसा शांति का राज है । सारथी रथ रोको......सेनापति श्रृषि आश्रम में हमारे आगमन की सूचना दे दी जाए । हम इस आश्रम के तपस्वियों के दर्शन करेंगे । राम के आगमन का समाचार सुनकर वृद्ध संयासियों की एक टोली अतिथि सत्कार के लिए आश्रम से आती हुई दिखाई दी। राम रथ से उतरे आये । गुरु वशिष्ट तथा उच्च  सैनिक अधिकारियों के मध्य खड़े होकर राम ने संयासियों को प्रणाम किया और मृदु स्वर में कहा:- मुनियों आपके आश्रम की शोभा अपूर्व है। मैं आश्रम वासियों तथा इस आश्रम के अधिष्ठाता के दर्शन करना चाहता हूं । 

      एक वृद्ध सन्यासी ने आगे बढ़कर राम को आशीर्वाद दिया और कहा .. राजन! यह आश्रम महर्षि शंबूक का है । चारों वेदों और धर्म शास्त्रों के प्रकांड पंडित है । हम सब उनकी छत्रछाया में विद्या उपार्जन करते हैं। राम प्रफुल्लित मन से बढ़ते हुए संयासियों के साथ शंबूक ऋषि के आश्रम की ओर चल दिए । शंबूक इस समय ध्यान अवस्था में थे । कोलाहल सुनकर शंबूक की आंखे  खुल गई । राम ने झट आगे बढ़कर प्रणाम किया और कहा: महर्षि मै दशरथ का पुत्र राम हूं। आपके आश्रम की सुंदरता से प्रभावित होकर मुझे आपके दर्शनों की अभिलाषा हुई । आपका वंश कौन सा है?  शंबूक ने खड़े होकर राम को आशीर्वाद दिया और कहां राम मेरा नाम शंबूक है । मैं शूद्र हूं । 

     इतना सुनना था कि राम का चेहरा गुस्से से तमतमाया और नेत्रों मे लहू तैरने लगा । भुजाएं फड़कने लगी उन्होंने खड्ग पर हाथ रखते हुए कहा शूद्र तेरे रक्त से प्यास बुझाने के लिए इस खड्ग ने देश का कोना-कोना छान डाला है । तुमने शूद्र होकर ब्राह्मण बनने की धृष्टता की है । तूने मर्यादा का उल्लंघन किया है। तेरा अपराध अक्षम्य है। राम का लपलपाता हुआ खड्ग म्यान से बाहर निकल आया। शंबूक ने निर्भीकता से सिर उठाया। उनके मुख पर अलौकिक तेज था । अधखुले सीप के समान आंखें सहसा फैल गई । चकित होकर पूछा: कैसा अपराध महाराज? राम ने अधैर्य होते हुए कहा:- मूर्ख तूने निर्धारित धर्म की श्रृंखलाओं को तोड़ने का दुस्साहस किया है। तूने परंपरा और समाज के विरुद्ध विद्रोह किया है । तूने शूद्र का धर्म त्याग कर द्विज बनने का जघन्य पाप किया है। तेरे इस कुकर्म के कारण मेरे राज्य में ब्राह्मण पुत्र की अल्पायु में मृत्यु हो गई। तू ही ब्राह्मण पुत्र की मृत्यु का कारण है। तू हत्यारा है इसलिए राजदंड के अनुसार तू मृत्यु का पात्र है । 

     शंबूक ने सुना उनका मुख रक्त वर्ण हो उठा कृश शरीर बेल की भांति कांप उठा । उनके ओंठ आंधी से सूखे पत्तों के समान फड़फड़ा रहे थे । शंबूक ने सागर के समान गंभीर गर्जन करते हुए कहा राम तनिक मन दर्पण में झांक कर देखो-- आज से कुछ वर्ष पूर्व की आकृति और तुम्हारी आज की आकृति में कितना बड़ा अंतर है । दंभ और अज्ञान के अंधकार को कुछ क्षणों के लिए त्याग कर देखो तुम्हारी आकृति कितनी भ्रष्ट हो गई है। मुझे स्वप्न में भी आशा नहीं थी कि देवताओं द्वारा मान्य दशरथ पुत्र राम का इतना नैतिक पतन हो जाएगा और वह अपने दुष्कर्मों का फल दूसरों पर लादकर राजदंड की आड़ में ऋषियों के वध के लिए भी अधीर हो जाएगा! ब्राह्मण बालक के अल्पायु में मृत्यु का कारण मैं नहीं तुम व वह स्वयं है । उसके अपने पाप कर्म है । तुम भी सह-अपराधी हो । तुम्हे इतना भी ज्ञान नही किसी बालक की अल्पायु मे मृत्यु का कारण उसके अपने के अधम व पापात्म होते है । राजा के दायित्व राज्य की सीमाओं की रक्षा विस्तार व प्रजा की प्रत्यक्ष अपराधों से संरक्षा और सुरक्षा की है । अप्रत्यक्ष शक्तियों को प्रसन्न और कुपित करने का भार इन ब्राह्मणों पर है जो कर्तव्य त्यागी हो गये है । नक्षत्रों और ग्रहों की दिशा बदलना, शिला मे प्राणप्रतिष्ठा करना, महामृत्युञ्जय जाप से मृत शरीर को जीवित करने का ठेका इन ब्राह्मणों ने कापी राइट करा रखा है । इनके कर्तव्य त्यागी होने का दोषी तुम्हारा राज्य और हमारा तप कैसे हो गया ? तुम इनकी साजिशों पर विचार किये बिना ही उद्यत होकर मेरी हत्या करने निकल पड़े इसलिए तु भी अपराधी ही है । तुम दोनो की कृत्यों का दोषी मै कैसे हो सकता हूँ? 

            राम का ऊंचा उठा हुआ खड्ग शनै शनै नीचे आ गया। उन्होंने त्रस्त आंखों से राजगुरु वशिष्ठ और पास खड़े ऋषि आश्रम के संयासियों की ओर एक हारे योद्धा जैसे देखा। उनके मुख से अनायास निकल पड़ा "मेरे पाप कर्म" शंबूक ने एक बार फिर मुनि वशिष्ट की ओर देखा और स्वाभिमान से सिर ऊंचा उठाकर कहा: "हां तुम्हारे पाप कर्म" धर्म कर्म को त्यागकर तुम्हारे राज प्रासाद के स्वादिष्ट भोजन पर पलने वाले यह ब्राह्मण और श्रृषि जन तुम्हे क्या बताएंगे यह तो अचेतन वाद्यों के समान है। तुम रागों को छेड़ते हो और यह तुम्हारी इच्छा अनुसार राग अलापते हैं । इस तीक्ष्ण प्रहार से वशिष्ठ क्रोधित हो उठे, परंतु शंबूक का मुख आत्मबल के अलौकिक तेज सा चमक रहा था। उन्होंने राम की ओर एकटक देखते हुए कहा राम तुम उस सर्प की भांति हो जो धोखे से पथिक को डँस ले । तू इन्ही ब्राह्मणों की साजिश का शिकार होकर बाली और सुग्रीव को युद्ध में व्यस्त रखा और इनकी कुटिलता को फलीभूत के प्रयोजन से वृक्षों की ओट से बाण चलाकर बाली का वध कर डाला। तुमने क्षत्रिय होकर क्षात्र धर्म का त्याग किया परंतु उस समय किसी ब्राह्मण का पुत्र नहीं मरा ? वेद शास्त्रों के अध्ययन, समाज के सड़े घोषित किए गये लोगो की सेवा सुश्रुषा तथा पशुओं से भी अधिक दबाये गये शूद्रों के उत्थान की चेष्टा को अपराध घोषित कर तुम मेरा वध करने के लिए उद्दत हो रहे हो । 

       सबने सुना । एक क्षण तक सब अवाक खड़े रह गए,  परंतु तथाकथित महाज्ञानी ऋषि वशिष्ठ आगे बढ़े और चोट खाए हुए सर्प की भांति फुंफकारते हुए बोले "शूद्र कनिष्ठ भाई की पत्नी पुत्री के समान होती है । बालि ने पशुबल का आश्रय लेकर छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी के साथ अनुचित संबंध स्थापित किया। शिष्टता और भद्रता की सीमा के उल्लंघन का फल राम ने उसे दिया। शंबूक के होठों पर परिहास की रेखाएं खींच गई उन्होंने वशिष्ठ की और पैनी आंखों से देखते हुए पूछा: "और ज्येष्ठ भाई की पत्नी" वशिष्ठ ने उत्तर दिया "माता के समान"। शंबूक ने गर्व से सिर उठाकर कहां राम द्वारा बड़े भाई का वध करवा कर जब सुग्रीव बड़े भाई की पत्नी को भोग विलास की सामग्री बनाकर अपने भवन में लाया तब तुम्हारी मर्यादा कहां थी? तब पैने बाणों  से भरा तुम्हारा तरकस कहां था? क्षण भर के लिए शंबूक चुप हो गए फिर राम की आंखों में आंखें डाल कर कहा "सत्य तो यह है कि तुम दोनों की पत्नियों का हरण हो चुका था" तुम दोनों एक दूसरे के दुःख को समझते थे । तुम दोनों का ध्येय एक था। महाबली बाली का सामना करना तुम्हारे बस की बात नहीं थी ।तुमने नीति  का सहारा लिया और मर्यादा की आड़ लेकर तुमने बाण चला दिया । कौन जानता था कि बराबर के युद्ध में भाग्य लक्ष्मी किसको वरती। राम तुमने पाप को पुण्य और अधर्म को धर्म कहा ।

अपने अपराधों को सुनने के लिए बड़ा धैर्य चाहिए राजन! तुम सत्य को झूठे तर्क से कुचल नहीं सकते! तुमने अपने पापों की कालिमा को हमेशा रक्त से धोया है । 

     तुम्हारे लिए धर्म अधर्म और मर्यादा आदि केवल पत्थर की शिलाओं के समान हैं । जिन्हें तुमने अपनी बुद्धि की पैनी छेनी और राजदंड के भारी-भरकम हथौड़े से अपने स्वार्थ हित में मनचाही आकृतियों में गढ़कर और भोली प्रजा की आड़ लेकर एक धोबी के कहने पर अपनी पत्नी सीता का त्याग दिया । राम ने सुना और गर्व से सिर ऊंचा उठा कर कहा "मैं अपने हर काम को बुद्धि की कसौटी पर कसकर निश्चय करता हूँ। भावना से कर्तव्य सदा ऊंचा होता है । शंबूक के मुख पर परिहास की रेखाएं खींच गई। वह अधखुले नेत्रों से राम की ओर देखे। शंबूक के ओठ खुले और एक दबी हुई आवाज निकली "राम निज से तो छल न करो। यूं कहो कि मैं हर काम को निजी स्वार्थ की कसौटी पर कसता हूं । तुमने अपनी गर्भवती पत्नी के प्रति पति धर्म का भावना कहकर और एक क्रोधांध मुर्ख के मुख से निकले हुए अविवेकपूर्ण शब्दों के पालन को कर्तव्य कह कर मित्रों और गुरुजनों की आंखों में धूल झोंक दिया । राजा के नाते प्रजा को संतुष्ट रखना तुम्हारी धर्म भावना है, तो जब भरत प्रजाजनों,मित्रों संबंधियों को संग लेकर तुम्हें वन से लौटाने के लिए तुम्हारे पास गया, उस समय प्रजा के अनुनय विनय को तुमने यह कहकर क्यों ठुकरा दिया कि पिता की आज्ञा का पालन करना मेरा पहला कर्तव्य है। मित्रों संबंधियों तथा प्रजा की इच्छा सब कोरी भावनाएं हैं ।

        वह धोबी का आक्षेप नहीं था शूद्र, वह मेरे निजी निश्चय के विरूद्ध प्रजा के मन की अशांति थी। राम वह तुम्हारे संकुचित और अंधकारमय मन का भ्रम था । रावण के राज प्रासादों में रहने के कारण तुमने सीता को ग्रहण करने से इंकार कर दिया। हजारों मनुष्यों के बीच तुमने सीता को अपमानित किया और कहा कि तुमने एक तुच्छ नारी को प्राप्त करने के लिए घने जंगलों, नदियों और सागर को पार नहीं किया अपितु अपने अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए यह सब कुछ किया था। उस समय तुम्हारे विरुद्ध एक संगठित आवाज उठी। तुम झट समझ गए। ऋषि-मुनियों और देवताओं ने एक आवाज से सीता को अमृत के समान पवित्र माना, तुमने यश लाभ के लिए सीता को ग्रहण तो कर लिया, परंतु  तुम्हारे मन में संशय का बीज तुम्हारी कमजोरियों की खाद पाकर प्रतिदिन फूलने फलने लगा और एक दिन वह वृक्ष इतना विशाल हो गया कि उसकी सघन शाखाओं ने साधारण ज्ञान के प्रकाश को भी ढक लिया। तुम बहाना ढूंढने लगे और पहला अवसर पाते ही प्रजा की आड़ लेकर तुमने अपनी गर्भवती स्त्री को धोखे से हिंसक पशुओं की दया पर अपरिचित घने वन में छुड़वा दिया। तुमने जब पति धर्म का त्याग किया उस समय किसी ब्राह्मण का पुत्र अल्पायु

मे नहीं मरा और आज युगों-युगों से दासता की श्रृंखला में जकड़े हुए इन शूद्र कहे जाने वालों के अंधकारमय जीवन को आलोकित करने के प्रयास को ब्राह्मण पुत्र की मृत्यु का कारण बता रहे हो  राम तुम तो साधारण उदारता से भी शून्य हो ।

       ::"मुख बंद करो शूद्र" राम ने घायल सिंह की भांति गर्जना करते हुए कहा। राम के नेत्र सुलगते हुए अंगारों की भांति चमक रहे थे। विद्युत के समान चमकता हुआ खड्ग म्यान के बाहर निकल आया । शंबूक राम के सामने आकर खड़े हो गए खड्ग की तीखी नोक उनके ह्रदय स्थल को छू रही थी। उन्होंने निडरता से कहा "राम तुम्हारे राज सुख भोगते और जीवित रहते दो पुत्र अनाथ बालकों की तरह दूसरों की दया पर पल रहे हैं ।क्या तुम अपनी संतान के प्रति धर्म का पालन कर रहे हो? राम तूने क्षत्रिय होकर क्षात्र धर्म का पालन नहीं किया। गृहस्थ होकर गृहस्थ धर्म को त्याग दिया । पिता होकर तुम संतान के प्रति अपने धर्म से विमुख हो गए फिर भी किसी ब्राह्मण पुत्र की अल्पायु में मृत्यु नहीं हुई और आज ............राम की भुजाएं तन गई उनकी आंखों में उन्माद झलक रहा था ।वह क्षुब्ध होकर एकाएक चिल्ला उठे "यदि एक शब्द भी तुम्हारे मुंह से निकला तो...........

       "मुझे धमकाने की चेष्टा मत करो राम! मुझे मृत्यु का भय नहीं है । यश और स्वतंत्रता का लघु जीवन दासता और अपमान से भरी हुई दीर्घ आयु से लाख बार अधिक सुखकर है । तुम्हारे खड्ग द्वारा मेरा बध मुझे सीधे स्वतंत्रता की ओर ले जाएगा इसलिए नहीं कि तुम मर्यादा पुरुषोत्तम राम हो, बल्कि इसलिए कि मैं सत्य पर हूं। और तुम अधर्म, पाखंड, झूठी मर्यादा और राजदंड के बल पर भोले भाले पक्षियों का शिकार खेलने वाले एक व्याघ्र हो। राम का खड्ग शंबूक के हृदयस्थल को बेधता हुआ उनके कृश शरीर से दूसरी ओर निकल गया । राम ने झटका देकर रक्तरंजित खड्ग को खींच लिया और सिर से ऊंचा उठाकर एक और भरा पूरा हाथ शंबूक के लुढ़कते हुए शरीर पर मारा । पलक झपकते ही शंबूक का सिर धड़ से अलग जा गिरा उनका जीवन  समाप्त हो गया ।

      राम पर यही आरोप नही है कि वह शूद्र हत्या के अपराधी है  अपितु संपूर्ण सभ्य मानवता के मूल्यों पर भी उनका यह कृत्य एक अमिट कलंक है जो उन्हे अपराधी ठहराने मे पर्याप्त  है । संभव है कि यह तर्क मानवता के अपराधियों को नागवार लगे । यह स्पष्ट है कि कोई भी अपराधी अपने अधिष्ठाता के बचाव में खड़ा होना अपना भाग्य समझता है जो कि सर्वदा अपने निज सुख की ही कामना करता है।

गौतम राणे सागर, 

राष्ट्रीय संयोजक, 

संविधान संरक्षण मंच ।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ