बसपा उत्थान और पतन:गौतम राणे सागर

 


बसपा उत्थान और पतन

    काफ़ी दिन से साहस बटोर रहा था विषयक कलम चला सकूं। उत्थान की चर्चा करते वक्त मन में उमंग का ज्वार भाटा उठने लगता है उल्लास की तरंगे हिलोरे मारती है परन्तु पतन की चर्चा से कलम उठाते समय हाथ कांपने लगते हैं। एक वक्त ऐसा भी आया जब बाबा साहेब डॉ आंबेडकर को भूला दिया गया था। जगजीवन राम को एससी/एसटी के नायक के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह कहना शायद अप्रिय लगे कि भारतीय राजनीति में चमचों के पदचाप की आहट ही सुनाई नही दे रही थी अपितु आहट ने चमचों का भयंकर रूप धारण कर चमचा युग के शोर में तब्दील कर चुका था। एक नए महान विभूति ने भारत के राजनीतिक क्षितिज पर एंट्री ली। नाम था कांशी राम। बाबा साहेब डॉ आंबेडकर को गंभीरता से अध्ययन करने के उपरान्त महसूस किया कि आंबेडकरवाद की स्थापना की जरूरत है। एक संगठनकर्ता ही यह कार्य संजीदगी से पूर्ण कर सकता है।

    उन्होंने अपने को संगठनकर्ता के रूप में असंगठित समाज के बीच में प्रस्तुत किया। एहसास कराया कि आपके पतन का कारण एकता की कमी है। बाबा साहेब डॉ आंबेडकर ने अपने लम्बे संघर्षों के बाद हमें आपको अधिकारों से आच्छादित करने हेतु कानूनी तौर पर संविधान में अधिकार अधिनियमित कर दिया लेकिन आज भी ब्राह्मणवादी ताकतें हमारे अधिकारों के मार्ग में अवरोधक बनी हैं। कारण स्पष्ट है हमारी कोई स्वतः की राजनीतिक ताकत नही है। आए दिन हमारी बहन बेटियां बलात्कार की शिकार हो रही है। बलात्कारियों को सत्ता का संरक्षण प्राप्त है। यह उदंडकारी सत्ता के इशारे पर ही हमारी वोट और बहन बेटियों की इज़्ज़त लूटते हैं। क्या यह अन्याय हमें और सहना चाहिए? यदि नही तो आवश्यकता है कि हमें एक राष्ट्रीय पार्टी बनानी होगी। कर्मचारियों के संगठन से प्रारब्ध होकर संघर्ष का मार्ग तय करते हुए 14अप्रैल 1984 को बीएसपी (बहुजन समाज पार्टी) के रूप में अवतरित हुआ एक नया राजनीतिक आन्दोलन।

        कांशी राम साहब लोगों को समझाने में सफ़ल हो गए कि देश में एक बड़ी जनसंख्या अभावों में अपना जीवन घसीटने पर अभिशप्त है। राजनीति के शिखर पर विराजमान वर्ग जो अभिजात्य जातियों का एक गुट है, जरायम पेशे का हामी है, नही चाहता कि बहुजन समाज को शासन, प्रशासन में आनुपातिक प्रतिनिधित्व मिले। उन्हीं की साज़िश से बहुजन समाज उपेक्षित है। बहुजन समाज को इकट्ठा करने के लिए बाबा साहेब डॉ आंबेडकर के साथ ही साथ उन्होंने विभिन्न जातियों में जन्में महापुरुषों को चुन चुन कर उनके इतिहास और संघर्ष को समाज के समान प्रस्तुत किया। कुर्मी जातियों के समक्ष छत्रपति साहू जी महाराज के इतिहास को प्रस्तुत किया। कैसे शिवाजी को पराक्रम के बावजूद जातीय आधार पर अपमानित किया गया। अदम्य साहसी योद्धा और राजा को जातीय आधार पर किस तरह अपमानित किया जा सकता है उदाहरण भारत से अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। क्षत्रिय घोषित करने लिए यज्ञोपवीत संस्कार अनिवार्य विधि थी। शिवाजी के लिए यह संस्कार करने के लिए कोई भी ब्राह्मण तैयार नही हुआ। संस्कार के लिए निर्धारित शुल्क से दोगुना शुल्क लेकर एक कुष्ठ रोगी यानि कोढ़ी ब्राह्मण गागा भट्ट संस्कार संपादित कराने को तैयार हुआ। उस वक्त संस्कार के लिए ₹4000 का शुल्क निर्धारित था लेकिन गागा भट्ट ने शुल्क के रूप में ₹8000चार्ज किया। 28 मई 1674 को आयोजित संस्कार में अनुमान लगाया गया कि शिवाजी के खज़ाने पर राज्याभिषेक विधि संपादन में ₹10लाख का खर्च आया।

       18जून 1674 को शिवाजी की माता जीजाबाई का देहावसान हो गया। बिल्ली के भाग्य से छिकहर टूटा ब्राह्मणों की एक टोली जैसे किसी अपशकुन ख़बर के इन्तजार में ही बैठी थी कि कोई अपशकुन ख़बर आए और शिवाजी के खज़ाने पर हमें धर्म के पाखण्ड की आड़ में लूट करने का अवसर उपलब्ध हो जाय। ब्राह्मणों ने जीजाबाई की मौत की आपदा को अपने अवसर के रूप में धूल की रस्सी बरना शुरू कर दिया। तलाशने लगे अवसर कि शिवाजी को समझाया जाय कि आपका राज्याभिषेक शुभ मुहूर्त में नही हुआ था अन्यथा आपके माताजी का असमय निधन नही होता! अंततः दोबारा राज्याभिषेक के नाम पर शिवाजी को लूटने का अवसर ब्राह्मणों ने तलाश ही लिया और 24 सितम्बर 1674 को शिवाजी का दोबारा राज्याभिषेक कर उन्हें तबियत से लूटा। इस रहस्योद्घाटन ने कुर्मी जातियों को बसपा के झण्डे तले इकट्ठा होने के लिए प्रेरित किया।

    ज्योतिबा फूले, पेरियार रामस्वामी नायकर, संत गाडगे, राजा बिजली पासी, राजा सुहेलदेव राजभर, नारायणा गुरू इत्यादि महापुरूषों के जीवन संघर्षों को लोगों के सामने, गीत, नाटक, कैडर, रात्रि संगोष्ठी, वॉल राइटिंग, पोम्फलेट इत्यादि के माध्यम से प्रस्तुत किया गया। सोती कौम को जगाने के लिए कांशी राम साहब ने बहुत ही प्रभाव शाली नारे गढ़े जैसे *दलित मुसलमां करो विचार, कब तक सहोगे अत्याचार*। *वोट से लेंगे सीएम पीएम, मंडल से लेंगे एसपी डीएम*, "जो ज़मीन सरकारी है, वो ज़मीन हमारी है*। कांशी राम साहब ने स्थानीय स्तर पर कई नेताओं को तैयार किया। जिन पर पार्टी की नीतियों को जन जन तक पहुंचाने की जिम्मेदारी थी, हर एक व्यक्ति ने अपनी जिम्मेदारियों को बकायदा निभाया भी। जहां सामाजिक क्रान्ति के लिए ज्योतिबा फूले के कार्यों को पब्लिक नैरेटिव में लाया गया वहीं महिलाओं में शिक्षा का तेज़ी से प्रचार प्रसार बढ़े मंशागत सावित्री बाई फूले के जीवन संघर्ष को बड़े पैमाने पर प्रचारित किया गया।

      कांशी राम साहब ने एक ओर जहां पुरुष कार्यकर्ताओं को बड़े पैमाने पर तैयार किया वहीं दूसरी ओर महिला कार्यकत्रियों को भी उसी पैमाने पर तैयार किया। देश स्तर पर बहुत सी महिलाओं ने सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति आन्दोलन के लिए अपने को समर्पित किया। महाराष्ट्र के नागपुर से चंद्रा कमाड़े, मध्य प्रदेश से सरस्वती ठाकुर, पंजाब से सुखविंदर कौर, उप्र के कानपुर से रीता आर्या, आशा रानी, लखनऊ से श्यामा आनन्द इत्यादि महिलाओं ने रात दिन की परवाह किए बगैर ही अपने को इस क्रांति में झोंक दिया था। सरस्वती ठाकुर, चंद्रा कमाड़े, सुखविंदर कौर, रीता आर्या के भाषणों के लोग दीवाने थे। हां इन महिलाओं का दिल्ली में अपना आवास नही था। ये वहां लम्बे समय तक निर्वासित जीवन शायद नही बिता सकती थी। बहन जी ने भी महिला नेताओं में अपना स्थान बनाया परन्तु तुलनात्मक अध्ययन में बहन जी अन्य महिलाओं की तुलना में कहीं भी बीस नही थी। किसी की तुलना में वह अठारह थी तो किसी की तुलना में सत्तरह।

         यह रहस्य अभी तक रहस्य ही है कि कांशी राम साहब ने सक्षम महिला कार्यकत्रियों की जब एक लम्बी फ़ौज खड़ी थी तब बहन जी को ही आगे क्यों बढ़ाया? शायद दिल्ली में उपलब्धता को उन्होंने प्राथमिकता दी होगी! बहन जी को साहब ने जो भी ज़िम्मेदारी सौंपी वह उन पर कभी भी खरी नही उतरी। इसके बावजूद बहन को आगे बढ़ाने की साहब की ज़िद का कारण क्या था? रहस्य ही बना रहा। ख़ैर कांशी राम साहब बड़े ही दूरदर्शी थे नगीनों को वह तराशना ख़ूब जानते थे, होगी उनकी कोई रणनीति! सपा बसपा गठबंधन ने 1993 में संयुक्त रूप से चुनाव लड़ा जिसमें बसपा के कोटे में आई 164 सीट। बीएसपी ने कुल 67 सीट पर जीत हासिल की। यहां भी बहन जी की उपलब्धि जीरो ही रही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बहन जी ने अपनी मर्ज़ी से टिकट का बटवारा किया था परन्तु परिणाम बहुत ही बुरा रहा। यदि पूर्वी उत्तर प्रदेश ने बेहतर प्रदर्शन नही किया होता तो बसपा 10 सीट का आंकड़ा भी नही छू सकती थी, बावजूद इसके साहब ने हमेशा बहन जी मे जाने क्या ऐसी खासियत देखी थी तो वह उन्हें ही बढ़ावा देते रहे। एक वक्त ऐसा भी आया जब बसपा सिकुड़ते सिकुड़ते केवल क्षेत्रीय दल के रूप में उप्र तक सिमट कर रह गई।

    बसपा का जो बुरा हश्र 2014 लोकसभा और 2022 के विधान सभा चुनाव मे हुआ है ऐसी बुरी स्थिति तो उस वक्त भी नही थी जब बसपा का जन्म हुआ था, घुटनों के बल चलना भी नही सीख पाई थी।1989 में उप्र से दो लोकसभा चुनाव जीत कर बसपा ने अपनी धमाकेदार उपस्थिति का सबको एहसास करा दिया था। आजमगढ़ से रामकृष्ण यादव और बिजनौर से बहन जी ने ख़ुद चुनाव में जीत हासिल किया था। हां पंजाब के फिल्लौर से हरभजन सिंह लाखा ने भी लोकसभा सीट जीतकर लोकसभा में बसपा की गणना तीन पहुंचा दी।

      कांशी राम साहब एक बेहतरीन संगठनकर्ता थे। जब तक उनके नेतृत्व में संगठन था अनवरत फल फूल रहा था जैसे ही बहन जी ने बसपा की बागडोर संभाली सब गुड़ गोबर हो गया। निस्संदेह वह एक बेहतर शासक हैं, अफसरशाही की नाक में नकेल कसने में उन्हें महारत हासिल है परन्तु संगठन के मामले में वह हमेशा फिसड्डी साबित हुई है। शासक तभी अपनी कार्य योजना लागू कर सकता है जब उसका दल सत्ता के शिखर पर विराजमान हो। इसके लिए जरूरत पड़ती है एक बेहतर संगठनकर्ता की। बहन जी में यह गुण लेश मात्र भी नही है। उनकी आत्ममुग्धता कभी किसी रणनीतिकार को बीएसपी के संगठन की जिम्मेदारी सौंपने पर सहमत नही होगी। उनकी वर्तमान गतिविधियां यही दर्शाती हैं कि वह काफ़ी संकुचित दृष्टिकोण की हो गई हैं। संपत्ति और परिवार के उन्नयन की तरफ़ ही उन्नमुख हैं।

*गौतम राणे सागर*

  राष्ट्रीय संयोजक,

संविधान संरक्षण मंच।

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