कहते हैं जीवन,सच में बेदर्द है,समझता वही है जिसने कष्ट देखें हैं: सुजीत


 कहते हैं जीवन....सच में बेदर्द है।* समझता वही है जिसने कष्ट देखें हैं।।सपने लाचार तब हो जाते है जब वक्त का पहिया बेवश की आश को लाचार कर देता है। उदाहरण हैं। उदाहरण अनेक हैं। एक समय था जब सीतापुर में घिसट कर चलने वाले एक 52 वर्षीय पग-रहित व्यक्ति ने वर्षो की दौड़ में  साइकिल न पाने  कहानी बताई। 

तत्कालीन जिलाधिकारी को बात पता चली और 24 घंटे से कम समय में उसे अमृत से अमृत मिल गया। आज इसी तरह का एक मामला **राज्य में सरकार के सराहना का विषय बना,**जहाँ राह चलते एक जिलाधिकारी ने एक विकलांग बृद्ध व्यक्ति पास जाकर मुख्यालय तक आने का कारण पूंछा। वर्षों से दौड़ रहे एक पैर के उस बृद्ध दिव्यांग ने चलने के लिए साइकिल अनुदान की कृपा चाही। आवश्यकता आवश्यक थी। प्रशंसा तब पर्वत हो गयी जब जिलाधिकारी ने वहीं **खड़े रहकर 20 मिनट में साइकिल उपलब्ध करवा दी*। 


क्षण बीते नही कि सैकड़ो लोग वहां जमा हो गए। सभी हतप्रभ थे। अजीब दृश्य था परिसर में। आश्चर्य और विश्वास न होने वाला एक सत्य जो पूरा हुवा। सबमें एक बोध था। बोध एक दृश्य था। दृश्य में करुणा,दया कर्तव्य और विवेक का सयुंक्त स्वरूप था। सबमें सराहना थी। सराहना जिलाधिकारी पर थी। जिलाधिकारी और दिव्यांग दोनों एक दूसरे को देख रहे थे। दोनों आंखों में परस्पर आभार था।  **आप मुझ तक आये** **आप पहले क्यों न मिले**। **भावों में एक मंजर था,भावों में एक पल का एक समंदर था। विकलांग के जो नयन थे ? डबडबाये थे। वे रुक नही रहे थे बह रहे थे। 

बरस रहे थे,आहिस्ता,आहिस्ता। आंखों में खुशी थी। खुशी के आंसू थे। आंसुओं में एक रिश्ता था,**एक आश के फलित प्यास की। आंखों में आभार था।  अविश्वसनीय संसार जो मिल गया था। **80 वर्षीय दिव्यांग निर्धन सुखराम के पास एक धन था,निशब्द आशीर्वाद का। दिया तो जिलाधिकारी भी भावविह्ल हो गए झुके और हाथ जोड़कर प्रणाम किया, शायद रोये नही लेकिन क्षण-पल के लिए खोए जरूर।** इशारों से आये अधिकारियों को संवेदनसीलता सिखाई और स्वर निकले?इन्हें (दिव्यांग) पेंशन दीजिये। मामला झांसी के जिलाधिकारी रविन्द्र कुमार का है।--सुजीत सिंह।

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