शेर से परेशान जानवरों ने बंदर को चुना राजा

          शिकार करना शेर का स्वभाव है। उसी से उसका पेट भरता है। मांसाहारी होना उसकी नियति है। पेट की भूख मिटाने के लिए उसे प्रतिदिन शिकार करना ही पड़ता है। अन्य जानवर हमेशा इसी दहशत में जीते हैं, न जाने कब किसकी बारी आ जाय। जब वह शेर का निवाला बन जाए। खुद और उनके प्रजाति पर उठते संकट से निपटने का हल उन्हें तलाशना ही चाहिए। इसी दिशा में फलतः गीदड़ और लोमड़ी के झुण्ड ने एक तरकीब तजबीज की। जंगल में लोकतन्त्र था, उन्होंने तय किया कि अब हमें अपना राजा बदल देना चाहिए। जानवरों को सिर्फ़ इतना ही ज्ञान था कि शेर हमारा शिकार इसलिए करता है क्योंकि वह जंगल का राजा है। गीदड़ और लोमड़ी की समझ में यह वास्तविकता नही आ रही थी कि दरअसल शेर राजा होने की वजह से शिकार नही कर रहा है अपितु वह अपने को जीवित रखने के लिए शिकार करने को बाध्य है।
          जंगल के बंदरों ने अन्य जानवरों को भड़काना शुरू कर दिया कि यदि शेर के आतंक से मुक्ति चाहते हो तो अपना राजा बदलो। लोकतंत्र में राजा बदलने के दिये गए अधिकार का संजीदगी से इस्तेमाल करो तुम। सनद रहे जंगल में लोकतंत्र की व्यवस्था लागू थी। बंदरों को आपने खीस निपोरते हुए देखा है लेकिन जो उनकी भाषा समझते हैं उन्हें मालूम है बंदर बड़े ही शातिर, फरेबी, आत्ममुग्ध होते हैं। व्याख्यान में वह भारी भरकम शब्दों जैसे, करूणा, आत्म संयम, वाक्य संयम, प्रेम, सद्भाव, व्यवहार कुशल, परस्पर सहयोग का इस्तेमाल करते हैं परन्तु वास्तविक जीवन में वह क्रूरतम की सीमा लांघने में संकोच नही करते। बंदरियों का उदाहरण ले लें। वे अपने बच्चों से बहुत प्रेम करती हैं लेकिन जब वे बच्चे को बचाने के प्रयास में ख़ुद के डूबने के खतरे को भांपते ही बच्चे को पानी के ऊपर पटककर उसके ऊपर अपना लात रखकर छलांग लगा खु़द को बचा लेती हैं।
              बन्दर शेख चिल्ली सी हरकत में माहिर होते हैं। दूसरों को हमेशा बुद्धू समझते हैं। तकरीबन हर बुद्धू इसी गलत फहमी में जी रहा है कि वह लोगों को बुद्धू बनाने के अभियान में सफ़ल है। गीदड़ और लोमड़ी अक्सर बन्दर की साज़िश का शिकार हो जाते हैं। जबकि प्रचलित किंवदंती गीदड़ की भभकी ही है। फिर भी बन्दर के हाथ वह उस्तुरा दे ही बैठता है। शनैः शनैः बन्दर अपनी रणनीति में सफ़ल होने लगता है। फलतः जंगल के सारे जानवर मिलकर बन्दर को जंगल का राजा बना देते हैं। अपनी पराजय से भन्नाया शेर अब जंगल के जानवरों को बड़ी संख्या में मारने लगा। पहले शेर अपने पेट की भूख मिटाने के लिए ही जानवरों का शिकार करता था लेकिन हार के बाद वह प्रतिशोध में अधिक से अधिक जानवरों को मार देता।
            सभी जानवर मिलकर राजा बंदर से शेर के बढ़ते आतंक की शिकायत करते लेकिन छलिया बंदर कोई न कोई बहाना बनाकर उनकी शिकायत को झूठा साबित करने के यत्न में ही लगा रहता। संयोग ही है कि शेर बकरी को मारकर एक पेड़ की नीचे आराम से बैठ कर खा रहा था तभी बन्दर उस तरफ़ से फांदता हुआ गुजर रहा था। सारे जानवर ने बंदर को पकड़ लिया और कहा अब आप अपनी आंखों से साक्षात देख लें; शेर की हरकत। फितरत में माहिर बंदर छलांग लगाकर उसी पेड़ पर चढ़ गया जिस पेड़ की नीचे शेर बकरी को अपना निवाला बना रहा था। लगा इस डाल से उस डाल कूदने फांदने। कभी शेर के बाएं कभी दांयें खींस निपोरता। अंततः शेर अपनी दावत उड़ा कर मस्त चाल में चलता निकल गया।
          सभी जानवर ने एक सुर में तल्खी के साथ अपना विरोध दर्ज कराया कि राजा साहब; आपके रहते हुए शेर ने इतनी हिमाकत की, तसल्ली से बैठ कर पूरी बकरी खा गया लेकिन आपने उसके खिलाफ़ कोई कार्यवाही नही की। बन्दर ने कहा; आप लोगों को संयम का परिचय देना होगा। कटु वाणी से बचे। प्रज्ञा का पालन करें, हिंसा से नही विद्वता से विरोध करें, विद्रोह की भावना तो उठनी भी नही चाहिए। बस; एक बात का आप सभी अपने दिल पर हाथ रखकर जवाब दीजिए, हमने पूरी कोशिश की कि नही? मेरी भाग दौड़ में कहीं कोई कमी थी, नही न? यानि मेरे कर्मयोग में आप रत्ती भर भी कमी नही पायेंगे।
       हर समझदार व्यक्ति जानता है कि जंगल को शेर की दहशत से मुक्त कराने के लिए बंदरों पर भरोसा नही किया जा सकता। छद्म शूरवीर चयन की हमारे यहां परिपाटी चली आ रही है। हमेशा देश के साधारण नागरिक सच्चा शूरवीर तलाशने के चक्कर में बंदरों को अपना नेता मान लेते हैं। जंगल में शेर की दहशत को सिर्फ हाथी ही ख़त्म कर सकता है। शेर का शिकार करने के लिए या तो मचान का सहारा लेना पड़ता है या फ़िर हाथी के ऊपर बैठ कर शिकार किया जाता है। बंदरों को राजा बनाने से शेर की दहशत कम नही हो सकती।
           बंदरों और सरकारी नौकरों का स्वभाव एकरूप है। अवसर आने पर इन्हें एक बार आजमा कर देख लें। यकीन माने यह कभी भी आपके साथ खड़े नज़र नही आ सकते। पे बैक टू सोसायटी नाम पर गला फाड़ फाड़कर यह चिल्लाएंगे परन्तु आचरण में कभी भी लागू नही करेंगे। यदि इनका आचरण इतना ही अनुकरणीय होता तब बाबा साहब डॉ अम्बेडकर को 18 मार्च 1956 को आगरा में अपने अंतिम आगमन पर यह नही कहना पड़ता कि "पढ़े लिखे लोगों ने मुझे धोखा दिया।"  साधारण लोगों के बीच में यह इसलिए नही आते हैं कि इन्हें वाकई गरीब, अशिक्षित, वंचित, पीड़ित, प्रताड़ित के हित की चिन्ता हैं। दरअसल यह समाज में अपनी उपस्थिति इसलिए दर्ज़ कराते हैं ताकि इन्हें बार बार आरक्षण का लाभ मिलता रहे। 
        लोक सेवक के रूप में इन्होंने खूब लूट खसोट मचा ली। अनवरत सक्रिय रहने के बाद सेवा निवृत्ति के उपरान्त किसी बहुजन उत्पीड़क की दृष्टि इन पर पड़ जाए, गुलामी के लिए जन प्रतिनिधि के रूप इन्हें दूसरी इनिंग खेलने का अवसर दे दे, बस इतनी ही फिक्र इन्हें आपके साथ जुड़ने को बाध्य करती है। जिनका पूरा परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी आरक्षण के लाभ से ऐश्वर्य का आनन्द उठा रहा हूं उनसे पूछे; कि उन्होंने कितने डिग्री कॉलेज खोल कर बहुजन बच्चों को मुफ्त की शिक्षा देनी शुरू की है? कितनी बच्चियों की शादी के लिए सामूहिक विवाह का आयोजन कर दहेज़ रहित शादियां कराई है? ऐसे तथाकथित विद्वान लोगों में कितने हैं जिन्होंने खुद की शादी में कोई दहेज़ नही लिया है? वाणी विलासी लोग पब्लिक प्लेटफार्म पर भोथरे दावे अवश्य करेंगे परन्तु धरातल पर यह औधे मुंह भहराए नज़र आयेंगे। फितरत ऐसी कि इन्हें कथावाचक बनने में ख़ूब आनन्द आता है। कुछ सच्चे लोक सेवक हैं जो पूरी तन्मयता से आरक्षण के लाभ धर्म का अनुपालन करने में लीन हैं लेकिन वह बेचारे इन पाखंडियों के मीडिया प्रबंधन कला से मात खाकर गुमनामी में जी रहे हैं।
*गौतम राणे सागर*
  राष्ट्रीय संयोजक,
संविधान संरक्षण मंच।

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