बयान करना अतिशयोक्ति नही होगा कि कांग्रेस नवचेतन की बरक्स अवचेतन की दशा में है। देश को मोहब्बत का पैगाम बांटने की ख़्वाहिश मंद कांग्रेस के सर्वमान्य नेता राहुल गांधी क्या आंतरिक तौर पर जात्याभिमान की बेड़ियां तोड़ पाने में असफल हैं या फिर उप्र प्रकरण पर निर्णय लेने में संकोच करते हैं? संभव है कि उनके निर्णय को सुपरसीड किया जा रहा है।
जब कांग्रेसी सेना के पराक्रमी योद्धा एक एक कर पाला बदल रहे हैं तब क्या नई ऊर्जा से ओत प्रोत रणबांकुरो को हर मोर्चे पर जिम्मेदारी नही देनी चाहिए? गुलाम नबी आजाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुष्मिता देव, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह, कुलदीप बिश्नोई, कपिल सिब्बल इत्यादि के सही होने के प्रमाण पत्र जारी करने की मंशा नही। बावजूद इसके क्या इस यथार्थ से मुंह मोड़ा जा सकता है कि यह जब कांग्रेस में थे तब अपने अपने मोर्चे पर सफ़ल थे। इनके पराक्रम का कांग्रेस केन्द्रीय नेतृत्व लोहा मानता था। फक्र करता था कि उसने हर मोर्चे पर अभेद्य किला बंदी की है।अजेय योद्धा तैनात कर रखे हैं।
केन्द्रीय नेतृत्व में इतनी लियाकत तो होनी ही चाहिए कि जिन योद्धा पर वह गर्व करते हैं यदि वह कभी बगावत पर उतारू हो जाएं तो उन्हें काबू में कैसे रखा जायेगा, विकल्प तैयार नही रखना चाहिए था? जो कांग्रेस कभी संघर्ष की मिसाल थी अचानक से वह सुविधा भोगी होकर क्यों रह गई? एक वर्ग तैयार हो गया सुविधा भोगी नेता वर्ग। एक बार जिसे ऐश्वर्य का लत लग जाय फिर उससे संघर्ष की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए। उपर्युक्त वर्णित नेतागण जब यह महसूस करने लगे कि कांग्रेस अब डूबती जहाज़ है इसमें सवार रहने का मतलब है डूबने का खतरा। खिसक लिए ऐश्वर्य की तलाश में।
उप्र कांग्रेस का कभी बहुत मज़बूत गढ़ था। अभेद्य था। हज़ारों हाथियों के चिग्घाड़ मारते हुए ज़ोर आजमाईश के बावजूद इस किले की ईंट निकाल पाना असम्भव था। किले को ढहाने की कल्पना बेईमानी था। उप्र की धरती पर 1984 में एक नायक का पदार्पण हुआ नाम था कांशीराम। उन्होंने हाथी को अपने साथ रखा। रणनीति बनाई कांग्रेस के अजेय दुर्ग को ध्वस्त करने की कौन सी योजना अपनाई जाएं ताकि इसे नेस्तनाबूद किया जा सके। बारीक अध्ययन किया। अंततः कमज़ोर नस समझ आ गई। उन्होंने देखा कि कांग्रेस के नींव में लगे पत्थर एससी एसटी हैं उन्हें खिसकाने की कार्य योजना तैयार की जानी चाहिए। आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक मोर्चे में कमज़ोर होने के बावजूद यह समाज वैचारिक रूप से बहुत मज़बूत है। आनुपातिक प्रतिनिधित्व की जी अग्नि इसके अन्दर धधक रही उसे ज्वाला में तब्दील कर कांग्रेस की कब्र उसके दुर्ग में ही खोद दी जाएगी कांशी राम जी को विश्वास हो गया।
हुआ भी ऐसा ही। जैसे ही 1984 में बीएसपी का गठन हुआ कांग्रेस के बुरे दिन की शुरूआत हो गई। सच है 1984 के चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस लोकसभा में 413 सीट के साथ प्रचण्ड बहुमत और अद्वितीय जनादेश के साथ सत्ता में आई। उप्र विधान सभा चुनाव में भी 265 सीट पर जीत दर्ज करने में कामयाब रही। अटल बिहारी वाजपेई ने 1985 में उत्तरकाशी के एक मात्र ग्राउंड में अपना पीड़ा व्यक्त करते हुए हवाई यात्रा का एक वृतांत सुनाया। बताया कि एक बार मैं हवाई यात्रा पर था। एक सहयात्री मेरे पास आए मुझे अपनी सहानुभूति प्रेषित किया। वाजपेई जी आपकी हार पर मुझे बहुत आघात लगा। आपने वोट किसको दिया था? जी! हमने वोट नही वोट के रूप में इन्दिरा जी को श्रद्धांजलि अर्पित की थी। तब किस बात का अफ़सोस। अब आप अगली बार श्रद्धांजलि नही वोट दीजियेगा तब मैं जीत जाऊंगा। आपको अफ़सोस भी नही होगा।
हमारे विश्लेषण की सीमा उप्र है।1989 विधान सभा चुनाव में कांशी राम जी का हाथी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रहा। कांग्रेस को 265 सीट से 94 सीट पर ला पटका। एससी वोटर अब कांग्रेस का साथ बड़ी तेज़ी से छोड़ रहा था। कांग्रेस का ग्राफ तेजी से गिरने लगा और उसके नींव की ईंट अब बीएसपी की ईमारत बनाने में लगने लगी। उप्र 1991 विधान सभा चुनाव में कांग्रेस 46 सीट पर खिसक गई। उप्र में 1993 का चुनाव बसपा के लिए बड़ी उपलब्धि का रहा। कांग्रेस अपने दुर्ग की एक एक दीवार को ढहते देखने पर विवश थी। 93चुनाव में मात्र 28 सीट पर संतोष करना पड़ा। 1996 में कांग्रेस और बीएसपी ने एक साथ मिलकर चुनाव लड़ा। कांग्रेस को 5 सीट का लाभ हुआ उसे 33 सीट पर जीत हासिल हुई। बीएसपी अपने पुराने आंकड़े पर 68 पर अडिग रही।
अब उप्र के एससी ओबीसी और अल्पसंख्यक बीएसपी में अपना भविष्य तलाशने लगे थे। उप्र 2007 का चुनाव परिणाम दुहाई दे रहे थे कि बीएसपी ही अब एससी एसटी ओबीसी और मुस्लिम समुदाय का नया ठौर होगा। परन्तु हुआ उल्टा बेईमान नेतृत्व बहुत दिन तक अपने मतदाताओं को ख़ुद से बांधे रखने में असफल रहा। जिस तरह कांग्रेस बुरे दिन के दौर से गुज़र रही थी बीएसपी ने भी वही राह पकड़ ली। यह समाज या तो बीएसपी को वोट करता है या फिर विकल्प के अभाव में कांग्रेस को। पिछले दो दशक में एससी एसटी ओबीसी के अन्दर आत्म सम्मान ने गहरी पैठ बनाई है। यह समाज अब कांग्रेस को वोट देने के पक्ष में तो है लेकिन कांग्रेस का सिर्फ़ झण्डा स्वीकारेगा ब्राह्मणवादी नेतृत्व नही। बीएसपी से छिटका एससी वोटर कांग्रेस की झोली में थोक के भाव में गिरने को तैयार था। क्या इसे सहेज कर रखा जा सकता है, यदि हां तो शायद कांग्रेस को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता होगी।
जैसे ही बृजलाल खाबरी को कांग्रेस ने उप्र का अध्यक्ष बनाया एससी ख़ासतौर से चमार, जाटव दोहरे, पासी इत्यादि जिनकी संख्या 20% के आस पास है, बड़ी तेज़ी से कांग्रेस से जुड़ने लगे थे। यदि इस रणनीति पर कांग्रेस काम करती तो उप्र में वह अपने 2009 में प्राप्त लोकसभा की सीट के चुनावी परिणाम को दोहरा सकती थी। बृजलाल खाबरी को अध्यक्ष पद से हटाने का सन्देश यह जाता है कि कांग्रेस सत्ता से बाहर रहना पसन्द करेगी लेकिन अपने ब्राह्मणवादी चरित्र की रक्षा से समझौता नही करेगी। किसी एससी का नेतृत्व उसे स्वीकार्य नही चाहे वह नेतृत्व कांग्रेस को लोकसभा में बहुमत के जादुई आंकड़े तक पहुंचाने में कामयाब हो! कांग्रेस के प्रति एससी के बढ़ते झुकाव से मुतासिर होकर मुस्लिम भी कांग्रेस की तरफ़ खिंच रहा था।
जिस तरह अजय राय की चन्दन और उबटन वाली फ़ोटो होर्डिंग में लगाकर बड़े पैमाने पर अभिनंदन समारोह की तैयारी की जा रही है, मायने यही निकलते हैं कि कांग्रेस में आरएसएस की जड़े बहुत गहरे तक हैं। शायद राहुल गांधी असहाय हैं। यही वजह है कि एक मज़बूत समीकरण ही नही अपितु बेजोड़ रसायनिक फॉर्मूले को भस्मीभूत किया गया है।
*अब्दुल नसीर नासिर*
चेयरमैन,
डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ट्रस्ट।
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