पत्रकारों पर हमले-और सत्ता की शर्मनाक चुप्पी!

पत्रकारों पर हमले-और सत्ता की शर्मनाक चुप्पी!

लखनऊ में पत्रकार सुशील अवस्थी राजन को जिस तरह घर से बुलाकर, कार में बिठाकर और फिर सिस्टम की पूरी नापाक सुरक्षा में मरणासन्न कर दिया गया—
वह कोई साधारण वारदात नहीं है।
यह साफ संदेश है कि जो सच लिखेगा, उसे तोड़ा जाएगा।

और आज इस हमले से बड़ा अपराध है—
सरकारी संरक्षण में पनपी यह खतरनाक चुप्पी।

जिस प्रदेश की राजधानी में
राज्य-मान्यता प्राप्त पत्रकार को
इस तरह बर्बरता से कुचला जा सकता है,
उस प्रदेश में लोकतंत्र की रीढ़ टूट चुकी है,
और कानून व्यवस्था सत्ता के पैरों तले कुचल दी गई है।

सबसे बड़ा तमाचा प्रशासन के चेहरे पर यह है कि—
जो पत्रकारिता सत्ता के चरणों में सुबह-शाम दंडवत करती है,
उसी का पत्रकार आज अधमरा पड़ा है।

अगर सत्ता-समर्थक पत्रकार भी सुरक्षित नहीं,
तो बाकी पत्रकारों की हैसियत क्या बचती है?
—“भाड़ में जाओ” स्तर की।

और यह भी कोई राज़ नहीं रहा कि
सुशील अवस्थी पिछले दिनों
एक बड़े नेता और उसके शहज़ादे की करतूतों को उजागर कर रहे थे।
क्या यही उनकी ‘गलती’ थी?

अब ये आरोप नहीं—
खुली शक की घंटियाँ हैं,
जिन्हें सुनकर भी शासन बहरा बना हुआ है।

पत्रकार संगठनों की हालत भी कम शर्मनाक नहीं—
ये संगठन जैसे “विज्ञापन-नशीले कोमा” में पड़े हैं।
न विरोध, न सत्याग्रह, न सड़क, न कलम—
बस सरकारी विज्ञापनों का कॉमा!

आज स्थिति यहाँ तक पहुँच गई है कि
पत्रकारों पर हमला नहीं—
पत्रकारिता पर अंतिम संस्कार किया जा रहा है।

और याद रखिए—
अगर आज आप चुप हैं,
तो कल आपकी आवाज़ भी
ठीक सुशील अवस्थी की तरह
किसी गाड़ी में ठूंसकर कुचल दी जाएगी।

इसीलिए आज यह कविता नहीं—
चेतावनी है:

> “पहले वे आये दूसरों के लिए…
मैं चुप रहा…
फिर वे आये मेरे लिए—
और तब तक कोई नहीं बचा था।”

यह कविता नहीं—
आज यूपी की सच्चाई है।

अब कार्रवाई नहीं हुई तो यह हमला नहीं—
पत्रकारों को खुलेआम दी गई सूचनात्मक धमकी मानी जाएगी।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ