दलित हितों पर सुनियोजित हमले


 संयुक्त राष्ट्र की बैठक में कुछ गैर सरकारी संगठनों ने मानवाधिकार आयोग के समक्ष भारत में दलितों के साथ हो रहे भेदभाव व उत्पीड़न की शिकायत की थी। प्रतिक्रिया स्वरुप भारत के एक वरिष्ठ राजनयिक ने दावा किया कि भारत सरकार न केवल अस्पृश्यता जैसी मान्यताओं की निंदा करती है अपितु जो लोग छुआछूत से जुड़े कार्यों में लिप्त हैं उनके खिलाफ कानूनी कदम भी उठाए गए हैं । अपने दावों के समर्थन में उन्होंने भारतीय संविधान का आश्रय लेते हुए कहा कि हमारे संविधान में दलित रक्षार्थ पर्याप्त प्रतिभूतियां है। और हमारे देश में दलितों के साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं है।

   भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(4)16(4)17, 46, 330, 332, 335 इत्यादि अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को पर्याप्त सुरक्षा,  विकास के अवसर , प्रतिनिधित्व व उत्थान की शक्ति व प्रतिभूति प्रदान करती है । यह सत्य है और सर्वविदित भी । साथ ही साथ इस यथार्थता से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि हमारे संविधान में दलितोद्धार के मद्देनजर जितने भी अनुच्छेद सम्मिलित किए गए हैं उसमें किसी प्रकार की त्रुटि नहीं है। वास्तविक खामियां तो इसके सम्बर्धन, क्रियान्वयन और कार्यान्वयन की है। स्वतंत्रता मिलने के पश्चात् से ही शासकों की मंशा दलितों को केवल जीवित रखने की रही है न कि उन्हें समान अवसर व प्रतिष्ठा प्रदान कर आत्मनिर्भर बनाने की।

  

   इस प्रसंग में संविधान की मूल भावना के क्रियान्वयन की समीक्षा समीचीन होगा । संविधान के अनुच्छेद 335 की मूल भावना है कि अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के समुचित प्रतिनिधित्व को आधार मानकर केंद्र और राज्य सरकारों की नौकरियों में प्रभावी व पारदर्शी प्रक्रिया की आवश्यकता को दृष्टिगत कर दृढ़ता  के साथ उनकी नियुक्तियां की जाय । अनुच्छेद बिल्कुल साफ एवं स्पष्ट उल्लेख करता है कि यह सुविधाएं समस्त पदों पर सभी स्तरों पर लागू होंगी कोई पद इससे अतिरिक्त नहीं होगा। अभी तक की सभी सरकारों ने इस भावना की पूर्णतया अवमानना करते हुए रक्षा,  विज्ञान और तकनीक के तमाम पदों को आरक्षण से अलग कर दिया है । प्रमुख संस्थानों जैसे राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री कार्यालय, कानून मंत्रालय, योजना आयोग इत्यादि स्थानों पर तमाम पद आज तक आरक्षण के अनुसार नहीं भरे जा सके है । जबकि उन पदों को स्थानांतरण या प्रतिनियुक्ति के जरिए व निश्चित पदों पर पदोन्नति देकर भी भरा जा सकता है।


 महामहिम राष्ट्रपति ने देर से ही सही पर दलितों की भागीदारी के प्रति सरकारों के उपेक्षा पूर्ण रवैये का संज्ञान लिया व खिन्नता व्यक्त की कि अनुच्छेद  335 और अन्य संबंधित अनुच्छेदों को नियमित रूप से क्रियान्वित नहीं की जा रहा हैं । सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी 28 नवंबर 1998 के पत्र पर अपनी सहमति प्रकट करने से पूर्व उर्न्होंने टिप्पणी की कि मैं इस संबंध में अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करना पसंद करूंगा कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु जब अनुशंसा की जाए तो यह ध्यान रखा जाए कि यह संविधान की मूल भावनाओं, सिद्धांतों एवं सामाजिक दायरो एवं उनके प्रतिनिधित्व पर आधारित हो। यदि व्यक्ति समाज के कमजोर तबके से संबंधित अनुसूचित जाति /जनजाति जिनकी आबादी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 22.5% जबकि वास्तविकत तौर पर 25% से अधिक है तथा महिलाओं के अधिकारों का ध्यान विशेष तौर पर रखा जाए । आगे उन्होंने टिप्पणी की कि इस समाज में "सुयोग्य सदस्य" उपलब्ध है। फलस्वरूप इनका शून्य  प्रतिनिधित्व या प्रतिनिधित्व का अभाव न्यायोचित नहीं होगा । समाज के विभिन्न तबकों को प्रतिनिधित्व दिये जाने की आवश्यकता है । सर्वोच्च न्यायालय मे बढ़ते लम्बित कार्यों के शीघ्र निष्पादन की जरूरत को दृष्टिगत करते हुए इन्हे खाली रखना भी उचित नहीं प्रतीत होता है। सिर्फ खाली रिक्तियों को भरने के एवज़ में इनके प्रतिनिधित्व की अनदेखी नहीं की जा सकती है । मेरी टिप्पणी का आशय रिक्तियों को इन्हीं की नियुक्तियों से भरी जाए ।


  :: महामहिम की इस टिप्पणी से संपूर्ण भारतवर्ष में भूचाल सा आ गया और पूरा देश ज्वालामुखी के मुहाने पर खड़ा हो गया। यह झटका उन लोगों ने महसूस किया जिनकी मंशा दलित समाज को सिर्फ जीवित रखने तक सीमित है । मीडिया के हवाले से असंख्य टिप्पणियां व्यक्त की गई । यहां तक कि कई समाचार पत्रों ने संपादकीय भी लिखकर महामहिम राष्ट्रपति को दलित सोच के कटघरे में खड़े करने के कई असफल उपक्रम किए गये । महामहिम राष्ट्रपति की टिप्पणी पर भारत के मुख्य न्यायाधीश ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की कि मैं पूरे मनोयोग से स्वीकार करता हूँ कि न्यायाधीशों की नियुक्तियों में केवल योग्यता को आधार माना गया है ,और नियुक्तियां करते समय किसी तरह का भेदभाव नहीं किया गया है । संविधान के प्रमुख रक्षक महामहिम राष्ट्रपति की यह नैतिक जिम्मेवारी है कि संविधान के सिद्धांतों व लक्ष्यों के अनियमित अनुपालन की स्थिति में वे अपनी आवाज़ उठाएं व संस्थाओं को मशवरे दें।


    अनुच्छेद 335 गुणवत्ता की हिफाजत/प्रतिनिधित्व की वकालत करता है न कि योग्यता की । योग्यता के भ्रम के आवरण मे अनुसूचित जातियों /अनुसूचित जनजातियों को उनके वैधानिक अधिकारों से वंचित करने का एक चतुर यत्न है जो स्वतंत्रता के बाद से ही यत्र तत्र सर्वत्र कुटिलता से फैलाया गया है । महामहिम राष्ट्रपति ने फाइल में नोटिंग के माध्यम से वह केवल अनुसूचित जातियों के हकों की सुरक्षा का सलाह दे रहे थे कि उनके हकों का ध्यान रखा जाना चाहिए ताकि वह सिफर प्रतिनिधित्व के शिकार न हो जाए।

  भारत के मुख्य न्यायाधीश से जनमानस के जेहन में कौंध रहे इस प्रश्न का जवाब पाने की व्यग्रता है कि न्यायाधीशों की नियुक्तियों में योग्यता मापने का मापदंड क्या है? क्या कोई प्रतियोगिता आयोजित की जाती है ? यदि नहीं तो क्या उनके बेतार के तार ब्रह्मांड से जुड़ जाते है और आदेश आ जाता है कि  किसी न्यायाधीश का रिश्तेदार या करीबी होना ही प्रतिभा तलाश का पैमाना है ? इससे इतर योग्यता मापने का संभवतः कोई और मापदंड भी नहीं होगा। बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने गोलमेज कांफ्रेंस में गांधी जी को जवाब देते हुए कहा भी था कि "Representative government is better than well versed" प्रतिनिधित्व को आधार मानकर संविधान में अनुच्छेद 15(4)16 (4)17, 46, 330, 332 इत्यादि अनुच्छेदों को समायोजित किया गया है।

     माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 10 अगस्त 1999 के अपने निर्णय में अनुसूचित जातियों की सुरक्षा के साथ घोर अन्याय किया है । जब चिकित्सा व अभियंत्रण के पाठ्यक्रमों के दाखिले में आरक्षण मे विशेष सुविधा नकारने वाले उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के उच्च न्यायालयों के अनुच्छेद 15(4) और 46 के प्रतिकूल आदेश को सही ठहराते हुए उन्हें प्राप्त विशेष अधिकार "शिक्षा की पदोन्नति" से वंचित कर दिया । सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें पदोन्नति के लाभ से वंचित करके दलितों के हितों का भारी नुकसान किया है । नवंबर 1999 के अपने निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने नौकरियों में आरक्षण के प्रावधान को भी इस आधार पर खारिज कर दिया कि वर्णित पद केवल एक ही था, जबकि वह पद रोस्टर प्रणाली के अनुसार ही आरक्षित किया गया था। इस तरह किसी न किसी बहाने से अनुसूचित जातियों के आरक्षण के अधिकार को धीरे धीरे कम किया जा रहा है । ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारों के संकुचित मानसिकता से किये गये  इस कृत्य को अंजाम तक पहुंचाने की कुटिलता को विधिक साबित करने में न्यायालयों की भूमिका एक पथ प्रदर्शक की बनती जा रही है। अनुसूचित जाति/जनजाति राष्ट्रीय आयोग के अध्यक्ष श्री हनुमंतथप्पा ने अपने विशेष शक्ति का प्रयोग करते हुए आयोग के इतिहास में सर्वप्रथम अपने तरह की एक नवीन आख्या सरकार के समक्ष प्रस्तुत की। तकरीबन 2 वर्ष व्यतीत होने के बाद भी आज तक उस आख्या पर कोई कार्यवाही नहीं की गई है ।


        ::अनुसूचित जाति /जनजाति को भारतीय समाज में प्रचलित अवैधानिक घृणात्मक चार्तुवर्ण व्यवस्था ने समाज को सबसे कमजोर व निरीह बना रखा है और इनके उत्पीड़न का सिलसिला अनवरत जारी है । यह अधिकांशतः भूमिहीन है तथा इनकी आजीविका भू-मालिकों व अन्य प्रभुत्व संपन्न लोगों पर निर्भर हैं। दूसरों से अमानवीय तिरस्कृत व्यवहार पाना इनकी नियति बना दी गई है । जब से इन्होंने प्रतिबद्धता के साथ अपने प्रतिष्ठा,आत्मसम्मान और मानवाधिकार की रक्षा हेतु प्रयास शुरू किया है तबसे भद्र समाज का असहनशील गुट इनके इस कदम को अपने अहंकार के लिए चुनौती मान इसके विरोध मे उठ खड़ा हुआ है । इन्हें दबाने के लिए अस्त्रों-शस्त्रों से लैस होकर आये दिन असहाय व असुरक्षित दलितों को सताना, उनको मौत के घाट उतारना इनके दिनचर्या ही नही अपितु मनोरंजन का एक अभिन्न संसाधन बन गया है । 

     चुनावों के समय अत्याचार और प्रताड़ना के उदाहरण चारों ओर मिल जाते हैं। भू-मालिकों व तथाकथित भद्र समाज के प्रभावशाली संगठित गुटो के द्वारा दलितों एवं महिलाओं के शोषण और उत्पीड़न की अनवरत घटनाओं मे भी बाढ़ आ जाती है । उत्पीड़न की शिकार महिलाएं जब न्याय की याचना से

थानों में घटना की प्राथमिकी दर्ज कराने जाती है तो न्याय पाने की बरक्स बलात्कार की शिकार हो जाती हैं। इस तरह की घटनाओं का नेतृत्व आजकल पुलिस स्टेशनों के हाथ में है । जो उत्तर प्रदेश को उत्पात प्रदेश की मान्यता दिये पड़ा है । यदि सत्यनिष्ठ प्रतिबद्धता के साथ पूरे मनोयोग से देश में दलित एवं महिला उत्पीड़न की घटना का सर्वेक्षण कराया जाए तो निसंदेह दिल दहला देने वाले व अराजकता के अभ्यारण्य के नजारे मिल जाएंगे। आज भी दलितों की 50% आबादी अपने मूल अधिकारों से वंचित रखी गई है । साथ ही साथ यह प्रतिदिन भू मालिकों, तथाकथित संभ्रांत गुण्डों,पुलिस के डंडे व सरकार के दलालों के उत्पीड़न का शिकार हो रहे हैं।


     सरकार की एकीकृत ग्राम विकास अभिकरण योजना दलितों के उत्पीड़न के हथकंडों को चार चांद लगाती है। इस योजना ने ग्रामीणों की हड्डियों को चकनाचूर कर दिया है। योजना को क्रियान्वित हुए तकरीबन दो दशक से अधिक समय व्यतीत हो चुका है, परंतु बहुत ही कम ऐसे दृष्टांत होंगे जिससे यह सिद्ध हो सके कि इस योजना से व्यक्ति लाभान्वित हुए हैं । यदि यह कहा जाए कि यह योजना विकासखंडों,बैंको व दलालों के संगठित गिरोहों का सुपाच्य भोज्य पदार्थ के रूप मे "धन लूटने की योजना" है तो अतिशयोक्ति, निरर्थक व आधार नहीं होगा।


     भारत के वरिष्ठ राजनयिकों को कोई भी प्रतिक्रिया व्यक्त करने से पूर्व यथार्थ की पूर्ण जानकारी हासिल करना नितांत आवश्यक है अन्यथा केवल खानापूर्ति के लिए प्रतिक्रिया व्यक्त करना उनकी प्रतिष्ठा की उजली कमीज पर गहरे काले रंग का एक अमिट धब्बा होगा । उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय  के एकतरफा  निर्णय क्या भारतीय संविधान के अंतर्गत दलित हितों के समर्थन में वर्णित प्रावधानों का उल्लंघन नहीं है ? दलितों को उनके कानूनी अधिकारों से वंचित करना ही न्यायालयों का न्याय और संविधान का अक्षरशः अनुपालन है? न्यायालय द्वारा दलित के विरुद्ध दिए गये निर्णय भू- माफियाओं का भूमिहीनों पर संगठित आक्रमण नरसंहार की सनक तक, पुलिस स्टेशनों में महिलाओं को बेआबरू किए जाने की घटनाएं और दलितों को सिर्फ जीवित रखने की सरकार की साजिशे भी यदि वरिष्ठ राजनयिक की प्रवृत्ति में दलित उत्पीड़न की परिभाषा नहीं है तो आखिर दलित उत्पीड़न की परिभाषा क्या है ? कहीं ऐसा तो नहीं उनके व्याकरण में दलित उत्पीड़न की परिभाषा दलितों का समूल नाश हो या फिर मानवाधिकार के प्राधिकारियों को भारत में दलितों के उत्पीड़न से संबंधित यथार्थता से भ्रमित करके उनकी आंखों में धूल झोंकने की सोची समझी साजिश तो नहीं है ? उनकी मंशा जो भी हो परंतु यह साजिश निःसंदेह देश की एकता और अखंडता के लिए किसी बड़े खतरे का लक्षण है। 


   यदि हम अपने देश को शक्तिशाली देशों के समक्ष सामाजिक व आर्थिक शक्ति के रूप में स्थापित करना चाहते हैं तो हमें सच्चे मन से इस सत्य को स्वीकारना होगा कि समस्त समाज के सहयोग के बिना हम समग्र तरक्की नहीं कर सकते हैं । सम्यक सद्भावना व सहयोग जुटाने की दिशा में हमें सत्यनिष्ठ अभिलाषा के साथ असलियत की स्वीकारोक्ति व प्रतिबद्धता पूर्ण कर्मठता से उसका निदान ढूंढा जाना एवं मिथ्यापूर्ण प्रतिक्रिया से बचना ही देश के गौरव और गरिमा के विकास में मील का पत्थर साबित होगा तथा देश को प्रभुत्व संपन्न समाजवादी धर्मनिरपेक्ष गणराज्य की वास्तविक स्थापना में सहूलियत होगी।

गौतम राणे सागर, 

राष्ट्रीय संयोजक, 

संविधान संरक्षण मंच।

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