कोशिशें भरपूर रही है कि देश के नागरिकों की ज़बान पर ताला लगा कर रखा जाए परन्तु लोगों के ज़ेहन की उड़ान को कैद रखने में सरकारी महकमा कितना कामयाब रहा है ठीक से आकलन कर पाना संभव नही है। भूख की तपीश हर जगह तीखी हुई है पारा हमेशा चढ़ रहा है। संगीनों के साए में भूख की तीव्रता का खुलासा होने से दबाने के हर संभव प्रयास तो हुए ही हैं असंभव भी। भूख की पीड़ा लोगों को सरकार के खिलाफ़ विद्रोह के लिए मजबूर भी कर रही है परन्तु कहीं से भी बगावत की चिंगारी उठने में कामयाब नही हो पाई। 2014 के बाद सरकार के प्रबंधन कला ने वाकई कमाल ही कर दिया है। इनके रण कौशल की मिसाल अन्यत्र मिलना संभव ही नही है। मंहगाई बढ़ाने के लिए भी यह वंदे मातरम् का गीत गाते हैं। वंदे मातरम् के रणभेरी से गूंजा बिगुल, मंहगाई रूपी इस अश्व को कौन रोकने की गुस्ताखी करेगा? यदि देश के किसी व्यक्ति ने इस अश्व को रोकने की चेष्टा की तो चक्रवर्ती सम्राट को दी गई चुनौती मानी जाएगी। चक्रवर्ती सम्राट की रणनीति के हिसाब से जो मंहगाई का विरोध करेगा वह देश द्रोही होगा। जिस मंहगाई से गरीब की आह! निकलती है, संगीन के सायों में उसे महंगाई के समर्थन में ताली बजाकर वाह! कहना पड़ रहा है।
देश की वित्त मंत्री द्वारा प्रत्येक महीने डाटा प्रस्तुत करते हुए गौरांवित रूप से दावा प्रकट किया जाता है कि पिछले महीने की तुलना में इस महीने अधिक जीएसटी संग्रह हुआ है। कभी खुलासा नही किया जाता है कि इस जीएसटी की वजह से कितने गरीब परिवार ऐसे हैं जिन्हें भूखे पेट सोने पर विवश होना पड़ा है। माना 80 करोड़ लोगों को हर महीने 5 किग्रा राशन मुफ़्त वितरित किया जा रहा है, इस मुफ़्त का ढोल भी खूब पीटा जाता है। ढोल पीटने का पैसा भी हमीं से वसूला जाता है। यानि जो महंगाई का चाबुक मेरी पीठ पर सटाक सटाक मारा जा रहा है वह भी हमारी ही चमड़ी उधेड़ कर बनाया गया है।
अदम गोंडवी के शब्दों में;
पहले जनाब कोई शिगूफा उछाल दो।
फिर कर का बोझ कौम की गर्दन पर डाल दो।।
पांच किलो राशन और छः हज़ार रुपए प्रति वर्ष किसान सम्मान निधि का कितना खामियाजा देश के नागरिकों को भुगतना पड़ रहा है क्या कभी आपने अंदाजा लगाया? ₹10-15 किलो मिलने वाला आलू ₹40 में खरीदना पड़ रहा है। ₹65/किग्रा मिलनी वाली दाल ₹200/ kg खरीदने पर विवश होना पड़ा है। 2014 के बाद हमें सभी खाद्य पदार्थों का या तो दोगुना या फिर तिगुना दाम चुकाना पड़ा है। यह यथार्थ स्वीकारने में अब बिल्कुल संकोच नही हो रहा है कि देश को नागरिकों को मूक बधिर बना कर रखने का जो कार्य डलहौजी नही कर पाया था उसी काम को हमारे हुक्कामों ने बड़ी ही आसानी से कर दिखाया है।
जनता की सरकार, जनता के हितों की सरकार और जनता द्वारा चुनी गई सरकार; यही अर्थ है न लोकतंत्र का, हकीकत क्या है? क्या वाकई सरकार जनता के हितों के प्रति सजग है? हमारे देश के नागरिकों को अभी तक धार्मिक तौर पर स्वर्ग में स्थान दिलाने के सब्जबाग दिखाने की मनोवृत्ति रही है। अभी भी इसका अस्तित्व जड़वत है कोई भी फेर बदल नही हुआ बल्कि पाखण्ड की जड़े सूखने के बरक्स और गहरी और पुष्ट होती जा रही है। धर्म के नाम पर धंधेबाजों की दुकानें दिन प्रति दिन उन्नति के नए प्रतिमान गढ़ रही हैं। बड़ा ही अनुपम और अतुलनीय व्यवसाय है यह, बिना निवेश के ही यह धंधा किसी अलौकिक शक्ति के भय और कृपा पर चल निकलता है। लोगों की नासमझी का आलम यह है कि उज्ज्वल भविष्य की प्रत्याशा में वर्तमान को अपने पैर तले रौंद रहे हैं। पुनर्जन्म सुधारने की लालसा में वर्तमान की पूंजी को खग के हाथों में स्वेच्छा से सौंप देना जाहिर तौर पर स्वस्थ मनोदशा को तो प्रमाणित नही करती है।
जनता की सरकार की उपलब्धियों पर विश्लेषण केंद्रित करना ही ध्येय है। लोकतंत्र के देश में लोक कल्याणकारी योजनाओं को अंगीकार करना सरकार की प्राथमिकता भी है और नैतिक जिम्मेदारी भी। विवेचना के दायरे में एक दशक के कार्यकाल को ही समाहित करना समीचीन होगा। अधिक समय को सम्मिलित करने से संवीक्षा को न तो सारगर्भित रख पाना संभव होगा और न ही पब्लिक मूल्यांकन के लिए प्रस्तुत करना उचित। फलतः 2014 से हुए भारत के विकास की एक समीक्षा प्रस्तुत करते हैं। इस कार्यकाल में धर्म के दिवास्वप्न और लोक कल्याणकारी योजनाओं में साम्यता प्रदान की गई है। भारतीय राजनीति ने 2014 से त्याग के नए आयाम प्रतिपादित किए हैं। इससे पहले ₹50/kg टमाटर का मूल्य पहुंचते ही हाय तौबा मच जाती थी अब ₹100/ kg के दाम भी रास आने लगे हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि नागरिकों में त्याग करने का इतना सामर्थ्य आया कहां से? वर्तमान राजनीति ने बेरोजगार युवाओं का बहुत बड़े पैमाने पर बखूबी इस्तेमाल किया है। उन्हें मंत्र दिया, हिन्दू खतरे में है तुम्हें हिन्दुओं की रक्षा के लिए रात दिन प्रचार करना है कि सारे हिन्दू एक हो जाओ। इस कालखंड है हिन्दू अस्मिता की रक्षा को रोजगार से जोड़ दिया गया है। लहसुन ₹70/kg के दाम पर उछलते ही बढ़ती महंगाई के विरोध में धरने प्रदर्शन होने लगते दे परन्तु अब ₹400/kg आसमान की ऊंचाई छूती कीमतों पर भी किसी की हाय नही निकल रही है। मंहगाई निरन्तर उन्नति के पथ पर अग्रसर हैं,अतुलनीय उपलब्धि के लिए सरकार निस्संदेह बधाई की हकदार है।
2014 के बाद भारतीय राजनीति ने यकीनन नए भारत का निर्माण किया है; जहां बेरोजगारी कोई मुद्दा नही, आम आदमी के पहुंच से दूर होती शिक्षा पर कोई रंज नही, बेतहाशा आकाश चूमने को व्यग्र महंगाई पर कहीं से भी रोष के स्वर नही फूट रहे हैं। कमाल तो यह है कि अब लोगों को सरकार से किसी तरह की शिकायत भी नही। विरोध के लिए लोगों की सोशल मीडिया की सक्रियता को नकारना अन्याय होगा। निरंकुश शासक सोशल मीडिया नही सड़कों पर होने वाले प्रदर्शन से डरता है। विरोध का स्वर निष्क्रिय नही अपितु सक्रिय होना चाहिए। वीरान सड़के संसद को आवारा बना देती है। लोकतंत्र में जब विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका एक साथ घुल मिल जाती है तब देश की जनता को दो पाटन के बीच पिसने पर मजबूर होना पड़ता है। जरूरत है; सरकार को आईना दिखाने की:
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है।
मगर ये आंकड़े झूठे हैं यह दावा किताबी है।।
उधर जम्हूरियत की ढोल पीटे जा रहे हैं वो।
इधर पर्दे के पीछे बर्बरीयत है नवाबी है।।
लगी है होड़ देखो अमीरी और गरीबी में।
ये पूंजीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है।।
तुम्हारी मेज चांदी की तुम्हारे जाम सोने के।
यहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है।।
"अदम गोंडवी"
*गौतम राणे सागर*
राष्ट्रीय संयोजक,
संविधान संरक्षण मंच।
0 टिप्पणियाँ