सनातन का गूढ़ रहस्य:शक्ति संरचना या धार्मिक व्यवस्था..?

सनातन का गूढ़ रहस्य:शक्ति संरचना या धार्मिक व्यवस्था..?

भारत में जब भी सामाजिक न्याय और समानता की बात उठती है, तब एक शक्तिशाली प्रचार तंत्र "सनातन की रक्षा" का आह्वान करता है। यह विचारधारा यह दावा करती है कि सनातन धर्म शाश्वत, सार्वभौमिक और सभी के लिए न्यायसंगत है। लेकिन क्या यह सच में सभी को समान अवसर और अधिकार देता है? क्या यह पिछड़ी और अनुसूचित जातियों को शक्ति संरचना में उचित स्थान देता है? या फिर यह केवल एक जाति विशेष के प्रभुत्व को बनाए रखने का उपकरण मात्र है?

यदि हम ऐतिहासिक और पौराणिक संदर्भों को ध्यान में रखें, तो स्पष्ट होता है कि सनातन धर्म का वर्तमान स्वरूप समाज में समानता लाने के बजाय, एक व्यवस्थित वर्ग-आधारित शक्ति संरचना को बनाए रखने का माध्यम रहा है। जिन जातियों को शासक वर्ग में बनाए रखना था, उनके लिए विशेषाधिकार सुरक्षित किए गए, जबकि अन्य वर्गों की प्रतिभा को कुचलने के लिए विभिन्न षड्यंत्र रचे गए।

प्रतिभा के दमन की पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाएँ

१. एकलव्य और अर्जुन का प्रसंग:
महाभारत में वर्णित यह प्रसंग जातीय वर्चस्व के लिए प्रतिभाओं को कुचलने का सबसे स्पष्ट उदाहरण है। एकलव्य, जो निषाद जाति से था, ने स्वयं के प्रयासों से धनुर्विद्या में निपुणता हासिल की। जब यह ज्ञात हुआ कि वह अर्जुन से भी श्रेष्ठ धनुर्धर बन सकता है, तो गुरु द्रोणाचार्य ने उसकी प्रतिभा को समाप्त करने के लिए चाल चली। उन्होंने गुरुदक्षिणा के नाम पर एकलव्य का अंगूठा मांग लिया, जिससे वह कभी भी अर्जुन को चुनौती न दे सके।

यह केवल एक कथा नहीं, बल्कि यह दिखाता है कि किस प्रकार एक जातीय विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए अन्य वर्गों की योग्यता को नष्ट करने का प्रयास करता है।

२. कर्ण का अपमान:
महाभारत में ही कर्ण की कथा जातीय श्रेष्ठता की साजिशों का दूसरा उदाहरण है। कर्ण को उसकी जाति के कारण प्रतियोगिताओं में भाग लेने से रोका गया। जब वह धनुर्विद्या सीखने के लिए परशुराम के पास गया, तो उसकी जाति छिपानी पड़ी। लेकिन जब सत्य उजागर हुआ, तो उसे श्राप देकर उसकी प्रतिभा को निष्क्रिय कर दिया गया।

यह घटनाएँ यह स्पष्ट करती हैं कि सनातन व्यवस्था में शक्ति और अवसर केवल उन्हीं को दिए गए, जो सत्ताधारी जाति से थे।

३. शंबूक का वध:
रामायण में वर्णित शंबूक वध का प्रसंग भी इसी प्रवृत्ति की पुष्टि करता है। शंबूक, जो एक शूद्र था, ने कठोर तपस्या की, लेकिन उसे यह कहकर मार दिया गया कि उसकी तपस्या से उच्च जातियों का अहित हो रहा है। यह घटना संकेत देती है कि ज्ञान और शक्ति के स्रोतों पर केवल एक जाति विशेष का वर्चस्व स्थापित रखने के लिए अन्य जातियों के उत्थान को रोका गया।

धार्मिक ग्रंथों में सामाजिक भेदभाव का आधार

सनातन धर्म की मूल अवधारणाओं को जब हम गहराई से देखते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि इसमें चार वर्णों की व्यवस्था को कठोरता से स्थापित किया गया था। मनुस्मृति, जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था की रीढ़ मानी जाती है, उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया कि शूद्रों को शिक्षा, संपत्ति और सत्ता से वंचित रखा जाना चाहिए।

मनुस्मृति के कुछ प्रमुख कथन:

"शूद्रों को वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं है। यदि वे सुन लें, तो उनके कानों में पिघला सीसा डाल देना चाहिए।"

"ब्राह्मण ही सर्वश्रेष्ठ हैं, क्षत्रिय उनसे नीचे, वैश्य उनसे नीचे, और शूद्र सबसे नीचे हैं।"

यह धार्मिक आदेश यह स्पष्ट करते हैं कि कैसे वर्ण व्यवस्था के माध्यम से सत्ता का केंद्रीकरण किया गया।

आधुनिक संदर्भ: जातीय सत्ता संरचना की निरंतरता

इतिहास की ये घटनाएँ केवल पौराणिक कथाएँ नहीं, बल्कि वे आज भी हमारी सामाजिक संरचना में देखी जा सकती हैं।

उच्च शिक्षा संस्थानों में अब भी दलितों और पिछड़ों को समान अवसर नहीं दिए जाते।

उच्च प्रशासनिक पदों, न्यायपालिका और निजी उद्योगों में एक विशेष जाति का वर्चस्व है।

राजनीति में भी वंशवाद और जातिवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

जब भी कोई सामाजिक परिवर्तन का प्रयास किया जाता है, तो "सनातन खतरे में है" जैसी भावनात्मक अपील करके लोगों को भ्रमित किया जाता है।

सनातन का प्रचार तंत्र: एक व्यवस्थित षड्यंत्र

सनातन धर्म की रक्षा का आह्वान करने वाले अक्सर इस तथ्य को छिपाते हैं कि यह केवल आस्था की रक्षा नहीं, बल्कि सत्ता और विशेषाधिकारों की रक्षा का माध्यम है।

1. प्रचार तंत्र का प्रभाव:
मीडिया, धार्मिक संस्थान और शिक्षा प्रणाली का उपयोग कर यह स्थापित किया जाता है कि सनातन धर्म सभी के लिए समान है, जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है।

2. भावनात्मक शोषण:
"हिंदू खतरे में हैं" जैसी भावनात्मक अपील का उपयोग कर उन लोगों को भी सनातन की रक्षा में खड़ा कर दिया जाता है, जिनका इस व्यवस्था में कोई स्थान ही नहीं है।

3. जातीय एकता का भ्रम:
पिछड़े और दलित वर्गों को यह सिखाया जाता है कि वे पहले हिंदू हैं, बाद में दलित या पिछड़े। इससे वे अपनी वास्तविक सामाजिक स्थिति को भूल जाते हैं और अपने ही शोषकों के समर्थन में खड़े हो जाते हैं।

निष्कर्ष: सनातन की रक्षा या जातीय सत्ता की रक्षा?

सनातन धर्म केवल धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि एक सशक्त राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था है, जिसे एक जाति विशेष के प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए विकसित किया गया। इसकी रक्षा का आह्वान करने वाले वास्तव में अपनी सत्ता और विशेषाधिकारों की रक्षा कर रहे हैं।

जब भी कोई कहे कि "सनातन खतरे में है," तो विश्लेषण करें:

क्या वाकई सनातन खतरे में है, या फिर केवल जातीय सत्ता संरचना को बनाए रखने की कोशिश हो रही है?

क्या यह व्यवस्था सभी के लिए समान अवसर देती है, या केवल एक वर्ग को सर्वोच्च बनाए रखने का माध्यम है?

अगर भारत को समानता और न्याय की ओर ले जाना है, तो इस व्यवस्था पर खुलकर चर्चा करनी होगी और इसके छिपे हुए पहलुओं को उजागर करना होगा।
*गौतम राणे सागर*

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