क्रांति की संभावना क्षीण है


    क्या बहुजन समाज अपने अधिकारों के प्रति आंशिक तौर पर भी जागरूक है? शायद नही। कुछ जत्याभिमानी लोगों ने इन्हें जानवर समझा और इन्होंने झट लपक लिया। बना ली अपनी पहचान। हां हम हैं दो पैर वाले जानवर लेकिन दिखते मानुष सादृश्य हैं। मनुष्य सामाजिक जानवर है। वह अपने नांद और खूंटा से ईतर सामाजिक दायरे की सीमा को व्यापकता देने में सक्रिय रहता है इसलिये सामाजिक प्राणी है। यदि वह भी अपने क्षुदा शांति और परिवार की दहलीज में सिमट जाय तब वह सामाजिक प्रत्यय त्याग सिर्फ और सिर्फ़ जानवर रह जाता है। 

     बेहतर होता कि धर्म, सम्प्रदाय,जाति की संकुचित सीमा निर्धारित न होती तब हमारे देश की एक पहचान होती एक प्रतीक के रूप में कल्पना होती उसी को अखण्डता के उत्तरोत्तर वृद्धि के लिए एकीकृत प्रयास होता। कामचोरों की आलस्य में पड़े रहने और एय्याशी के समस्त श्रोतों पर हक जताने की भूख ने देश को अखण्ड ही नही रहने दिया। वर्ण और जाति के नाम पर पूरे समाज को तितर बितर कर दिया। उनका सिद्धान्त न*हर चले न चले कुदारी बैठे भोजन देय मुरारी* ने ईश्वर की बनाई हुई दुनियां को ईश्वर की मर्जी के खिलाफ़ ही ऐसा छितराया कि इकट्ठे होने की संभावना ही ख़त्म कर दिया है।

        अंध मनोवृत्ति मनुष्य को अधोगति की तरफ़ खीचती है। यही मनःस्थिति व्यक्ति के सोचने की क्षमता न्यून कर देती है। व्यक्ति कूपमण्डूक हो शैतान को भगवान, डकैत को परोपकारी, कुख्यात को विख्यात, क्षत विक्षत को विद्वत मंडली का नक्षत्र और बकैत को सिद्ध पुरुष मान लेती है। यहीं से प्रारबद्ध होता है निज हाथों से सभी लोकों को गवाने का मार्ग। इन अनुकरणों से स्पष्ट हो जाता है कि अंध विश्वास, अंध भक्ति और अंध श्रद्धा की भट्टी से उत्पादन शुरू हो गया है। इन गुणों का रेखांकन प्रतिबिंबित कर देता है कि अब इनमें विरोध और विद्रोह के वीर्य का अस्खलन हो चुका है; चिंता की लकीरें मिट जाती है और शुरू होता है अधम लोगों को सक्षम बनाने का अभियान।

      व्यक्ति के अंदर की शक्ति का समर्पण, अंधविश्वास, अंध श्रद्धा, आस्था और अंध भक्ति को जन्म देती है। अधिकारों की भूख व्यक्ति के आंतरिक शक्ति का उत्सर्जन करती है जिसमें प्रकाश व ज्ञान के किरणों की तीव्रता एकीकृत होकर जब व्यक्ति के मस्तिष्क पर पड़ती हैं; वह अंध श्रद्धा, अंध विश्वास, अंध भक्ति, आस्था और पाखण्ड को जला कर भस्मीभूत कर देती है। फिर वह इंसान हो जाता है। न कोई दलित होता है, न पिछड़ा होता है और न ही ब्रह्मा के मुख, भुजा और उदर से पैदा होता है। सभी का उद्गम मां का गर्भ ही है, गर्भ से इंसान जन्म लेता है न कि भगवान या शैतान। 

संपूर्ण अधिकारों से आच्छादन हेतु कुरीतियों के संहार व लूट पर प्रहार की क्या कुब्बत दिखेगी या चलता रहेगा मुर्खम् शरणम् गच्छामि?

*गौतम राणे सागर*

   राष्ट्रीय संयोजक,

संविधान संरक्षण मंच।

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